Tuesday, October 27, 2015

भोजपुर जिले के सातों विधान सभा सीटों के माले उम्मीदवारों का परिचय



सुदामा प्रसाद, तरारी विधानसभा

तरारी विधानसभा से माले के उम्मीदवार सुदामा प्रसाद ने नाट्य संस्था युवानीति से अपने सफर की शुरुआत की। उसी वक्त उनका भाकपा-माले से जुड़ाव हुआ। अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षोंं में उन्हें आईपीएफ का जिला प्रवक्ता बनाया गया। किसान आंदोलनों का वह दौर था। जिले में विश्वविद्यालय, सोन नहर के आधुनिकीकरण, सहार अरवल पुल समेत जिले के समग्र विकास के लिए जो उस दौर में आंदोलन चला, उसके अगुआ नेताओं में सुदामा प्रसाद रहे। इनको फर्जी मुकदमों में जेल भी भेजा गया। एक जननेता के बतौर बेहद लोकप्रिय सुदामा प्रसाद ने आरा और जगदीशपुर विधानसभाओं से चुनाव लड़े। आरा विधानसभा चुनाव में बहुत कम वोटों के अंतर से इनकी हार हुई थी। पिछले डेढ़ दशक से सुदामा प्रसाद किसानों के सवालों पर लगातार संघर्षरत रहे हैं। फिलहाल वे अखिल भारतीय किसान सभा के बिहार राज्य के सचिव हैं। पिछले दिनों इन्होंने किसानों की धान की खरीद, सिंचाई और खरीदे गए धान की कीमत समेत कई मुद्दों को लेकर ये अनशन पर बैठे थे। खासकर तरारी विधानसभा क्षेत्र में विभिन्न तबकों के सवालों पर इन्होंने आंदोलन किया है। 


मनोज मंजिल, अगियांव विधानसभा

तरारी प्रखंड के कपूर डिहरा में एक भूमिहीन परिवार में जन्मे मनोज कुमार उर्फ मनोज मंजिल 1997 में छात्र संगठन आइसा से जुड़े। इनके पिता पार्टी कार्यकर्ता हैं। इनकी मां खेतिहर मजदूर हैं। ट्यूशन पढ़ाकर इन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। छात्र-आंदोलनों में शिरकत के कारण पढ़ाई बीच-बीच में बाधित भी हुई। इन्होंने स्नातक तक पढ़ाई की है। छात्र आंदोलन मंे ये तीन बार जेल गए। इन्होंने आइसा के जिला सचिव, प्रदेश सहसचिव की जिम्मेवारी निभाई। वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय को यूजीसी की मान्यता दिलाने के लिए और छात्रसंघ चुनाव के लिए इन्होंने आंदोलन किया। लाॅ कालेज में आंदोलन करके आरक्षण लागू करवाया। डाॅ. अंबेडकर आवासीय विद्यालय में आंदोलन के बल पर क्लास रूम का निर्माण करवाया। विश्वविद्यालय में दलित छात्रों के लिए स्पेशल कोचिंग की व्यवस्था इन्होंने करवाई। दलित छात्रावासों की जर्जर स्थिति को बदलने के लिए आंदोलनों का इन्होंने नेतृत्व किया। 2003-04 से मनोज मंजिल ने भाकपा-माले के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के बतौर काम करना शुरू किया। हाल के वर्षों में इन्होंने अगिआंव विधानसभा में बिजली, स्कूल, शिक्षा, राशन-किरासन, वृद्ध-विधवा-विकलांग पेंशन, गांवों के लिए पहुंच पथ, खाद की कालाबाजारी को रोकने और भूमिहीनों के लिए जमीन के सवाल पर जबर्दस्त आंदोलन संचालित किये। एक स्कूल की जमीन को दबंगों से मुक्त करवाया। स्कूल में शिक्षकों की व्यवस्था करवाई। खाद की कालाबाजारी के खिलाफ आंदोलन किया। इन्होंने शहीद साथी सतीश यादव के साथ मिलकर किसानों का लगभग चैंतीस हजार क्विंटल धान बिकवाया। आंदोलनों से जनता की मांग तो पूरी हुई पर प्रशासन ने हर बार इन पर फर्जी मुकदमा लाद दिया। जनता के सवालों पर लड़ते हुए ये प्रशासन के आतंक के सामने कभी नहीं दबते। इन पर अभी तेरह फर्जी मुकदमे हैं। अगिआंव इलाके के नौजवानों, किसानों, महिलाओं, मजदूरों और गरीबों के बीच ये बेहद लोकप्रिय हैं। 


चंद्रदीप सिंह, जगदीशपुर विधानसभा

जगदीशपुर विधानसभा के भाकपा-माले प्रत्याशी चंद्रदीप सिंह 1978 में पार्टी से जुड़े। राजपूत जाति से आने वाले चंद्रदीप सिंह अस्सी के दशक से ही भोजपुर के गरीब मेहनतकशों और किसानों के आंदोलन के लोकप्रिय नेता रहे हैं। वे बिहार प्रदेश किसान सभा की राज्य कमेटी के सदस्य रहे और फिर इसके राज्य उपाध्यक्ष बनाए गए। 1990 में उन्होंने आईपीएफ के उम्मीदवार के बतौर तत्कालीन पीरो विधानसभा से विजय हासिल की थी। 1995 और 2000 के विधानसभा चुनाव तथा 1996 के उपचुनाव में भी वे पीरो विधानसभा से भाकपा-माले के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े, लेकिन विजय हासिल नहीं कर पाए। 1996 में उन्हें 33000 वोट मिले। 

फिलहाल वे अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य, बिहार के राज्य उपाध्यक्ष और भोजपुर के जिला सचिव हैं।




राजू यादव, संदेश विधानसभा

राजू यादव आइसा और इंकलाबी नौजवान सभा के पदाधिकारी रह चुके हैं। इन्हें छात्र-युवा आंदोलनों के नेतृत्व का अनुभव है। लगातार छात्र-युवाओं के सवालों पर संघर्ष करते रहे हैं। 2010 में ये बड़हरा विधानसभा से माले के उम्मीदवार थे। पिछले लोकसभा चुनाव में आरा संसदीय क्षेत्र से इन्होंने भाकपा-माले प्रत्याशी के बतौर चुनाव लड़ा और लगभग 1 लाख वोट ले आए। संदेश क्षेत्र में इनके कामकाज का केंद्रीकरण है। यहां किसानों की सिंचाई, धान की बिक्री, डीजल अनुदान, फसल क्षति मुआवजा आदि सवालों पर इन्होंने आंदोलनों का नेतृत्व किया है। पिछले दिनों सुदामा प्रसाद के साथ ये भी आरा में इन सवालों को लेकर आमरण अनशन पर बैठे थे। राजू यादव नौजवानों के बीच खासे लोकप्रिय हैं। 



क्यामुद्दीन अंसारी, आरा विधानसभा

क्यामुद्दीन अंसारी आरा विधानसभा से माले प्रत्याशी हैं। हदियाबाद, गड़हनी, भोजपुर के एक गरीब भूमिहीन परिवार, जिसके पास मात्र एक कमरे का घर था, में जन्मे 43 वर्षीय क्यामुद्दीन अंसारी 1989 के आसपास भाकपा-माले आंदोलन से जुड़े। लोकसभा चुनाव में आईपीएफ उम्मीदवार रामेश्वर प्रसाद के चुनाव प्रचार में लगे। उस वक्त पूरे देश में घोर सांप्रदायिक उन्माद और हिंसा का माहौल था, इन्हें लगा कि आईपीएफ और भाकपा-माले ही सही सेकुलर पार्टी है। पहले ये छात्र संगठन एबीएसयू से जुड़े और 1990 में जब आइसा के सम्मेलन हुआ, तो उसमें शामिल हुए। 1990 में भाकपा-माले की सदस्यता के लिए आवेदन दिया और 1992 में पार्टी के सदस्य बन गए और एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के बतौर काम करना शुरू किया। 

1990 से 2000 तक इन्होंने आइसा में काम किया। 1995 में ये बिहार आइसा के राज्य अध्यक्ष चुने गए। इन्होंने चारा घोटाले के खिलाफ छात्र-युवाओं के बड़े आंदोलनों का नेतृत्व किया। शिक्षा और रोजगार के सवाल पर इन्होंने लड़ाई लड़ी। बिहार में केंद्रीय विश्वविद्यालय और नए विश्वविद्यालयों की मांग को लेकर हुए आंदोलन का इन्होंने नेतृत्व किया। उस आंदोलन के दबाव में ही बिहार में छह नए विश्वविद्यालय बने। छात्र-आंदोलन को सामंतवाद और सांप्रदायिकताविरोधी आंदोलनों से जोड़ने में इनकी अहम भूमिका रही। राजद के सामाजिक न्याय और सेकुलरिज्म के पाखंड का इन्होंने लगातार पर्दाफाश किया। समस्तीपुर और मधुबनी गोलीकांड हो या छात्र-युवाओं पर दमन के अन्य मामले ये उनके प्रतिरोध की अगली कतार में रहे। 

सन् 2000 के बाद पीरो, गड़हनी, सहार आदि प्रखंडों में पार्टी मोर्चे पर काम करते हुए गरीब-गुरबों के हक-अधिकार की लड़ाई लड़ी। पिछले चार वर्षों वे आरा मुफस्सिल प्रखंड के सचिव हैं। यहां उन्होंने बाढ़पीड़ितों के लिए राहत के सवाल पर बड़ी लड़ाई लड़ी। राशन, किरासन, बिजली, बीपीएल सूची में सुधार के लिए हुए आंदोलनों का नेतृत्व किया। महिला उत्पीड़न और बलात्कार की कई घटनाओं के खिलाफ उन्होंने लड़ाई लड़ी। अल्पसंख्यकों पर हुए अत्याचार की खिलाफत की और सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वालों के खिलाफ संघर्ष की अगली कतार में रहे। 



ललन यादव, बड़हरा विधानसभा

61 वर्षीय ललन यादव भाकपा-माले से 1978 में जुड़े। इसके पहले 74 के छात्र आंदोलन में शामिल हुए थे, पर बहुत जल्दी से उससे इनका मोहभंग हो गया। उन्हें लगा कि संपूर्ण क्रांति वाले कांग्रेसी ढर्रा पर चल रहे हैं। इसके बाद ही ये भाकपा-माले से जुड़े। 1984 में पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए। इन्होंने बिहार प्रदेश किसान सभा के मोर्चे पर काम करना शुरू कियाा। कभी भूमि आंदोलन, तो कभी सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष करने, तो कभी कर्मचारी आंदोलन में सड़क जाम करने के कारण प्रशासन ने इन पर मुकदमा किया। इन्हें छह बार जेल में डाला गया। 2005 में इन्होंने बड़हरा विधानसभा से चुनाव लड़ा था। पिछले विधानसभा चुनाव में ये बड़हरा विधानसभा चुनाव अभियान समिति के प्रभारी थे। बाढ़-सुखाड़, मनरेगा, बकाया मजदूरी और पर्चाधारियों की जमीन से संबंधित आंदोलनों के लिए इन्होंने लगातार संघर्ष किया है। 


वृंदानंद सिंह, शाहपुर विधानसभा 

वृंदानंद सिंह ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत छात्र संगठन एबीएसयू से की थी, जो आगे चलकर अखिल भारतीय स्तर पर आइसा बना। वृंदानंद पेशे से अधिवक्ता हैं। आम अवाम को न्याय दिलाने के लिए ये हमेशा तैयार रहते हैं। भाकपा-माले आंदोलन के प्रति गहरे तौर पर प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी हैं। ये शाहपुर क्षेत्र में सामाजिक न्याय और गरीब-मेहनतकशों के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं।

सम्मान-अधिकार के वास्ते, कामरेड रामनरेश राम के रास्ते


गरीबों-मजदूरों-किसानों की एकता और सांप्रदायिक भाईचारा ही कामरेड रामनरेश राम का संदेश 

कामरेड रामनरेश राम के रास्ते चलकर ही जनता को सम्मान और लोकतांत्रिक अधिकार हासिल होगा: का. दीपंकर

आरा समेत भोजपुर के कई प्रखंडों और पंचायतों में रामनरेश राम की याद में जुलूस निकला 

सहार में कामरेड दीपंकर जनसभा को संबोधित करते हुए 
(कामरेड रामनरेश राम की पाँचवी बरसी पर भोजपुर में दो विशाल जनसभाएं हुईं। संयोग से यह भोजपुर में चुनाव प्रचार का आखिरी दिन था। परिसीमन के बाद  जदयू संरक्षित एक अपराधी इस इलाके से जीत गया था, पर इस बार वह अपराधी लोजपा में चला गया है। परिसीमन के बाद दो हिस्से में बंट गए सहार विधान सभा के दोनों हिस्सों यानी तरारी और अगिआँव विधान सभा में इस बार माले प्रत्याशी सुदामा प्रसाद और मनोज मंजिल के प्रति जबर्दस्त जनसमर्थन दिख रहा है। इन दोनों जनसभाओं तक किसी चैनल के कैमरे नहीं पहुंचे। खुद लालू जी की सभा इस जनसैलाब के आगे बेहद फीकी थी। अखबार अब भी यहाँ माले को तीसरे नंबर पर दिखा रहे हैं। जबकि सच यह है कि माले यहाँ एक नंबर पर है। पेश है इन दोनों सभाओं में दिये गए भाकपा-माले के राष्ट्रीय महासचिव कामरेड दीपंकर भट्टाचार्य के भाषण का सार संक्षेप। साथ में अखबारों के कतरन और कुछ फोटो)
नारायणपुर/ सहार/ आरा/ अगिआंव बाजार : 26 अक्टूबर

भोजपुर में क्रांतिकारी वामपंथी आंदोलन के संस्थापक और सहार के पूर्व विधायक का. रामनरेश राम की पांचवी बरसी पर नारायणपुर और सहार में भाकपा-माले ने दो विशाल जनसभाएं की, जिनको संबोधित करते हुए भाकपा-माले के राष्ट्रीय महासचिव का. दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा कि भोजपुर में गरीबों और किसान-मजदूरों की राजनीतिक दावेदारी और सामाजिक बदलाव लाने का काम का. रामनरेश राम ने किया। उन्होंने इन ताकतों की एकता और सांप्रदायिक भाईचारे का जो संदेश दिया, उसी रास्ते से ही देश खुशहाली की ओर बढ़ेगा।

नारायणपुर की सभा में कामरेड दीपंकर 
का. दीपंकर ने कहा कि एक ओर भाजपा है खेती की जमीन हड़पने और खेती को चौपट करने की नीति पर अमल कर रही है और उनका कृषि मंत्री आत्महत्या करने वाले किसानों का अपमान करता है, तो दूसरी ओर भाकपा-माले है, जो किसानों के खेतों में पानी, फसल की खरीद, डीजल, बीज, खाद अनुदान के लिए संघर्ष कर रही है। एक ओर आरएसएस-भाजपा की ओर से आरक्षण खत्म करने की बात की जाती है और उनका एक मंत्री जलाकर मार दिए गए दलित बच्चों की तुलना कुत्ते से करता है, जैसा कि खुद मोदी ने गुजरात जनसंहार के मृतकों की तुलना दुर्घटना में मारे गए पिल्ले से की थी, वहीं दूसरी ओर भाकपा-माले है, जिसने का. रामनरेश राम के नेतृत्व में दलितों-अकलियतों, गरीबों, महिलाओं के मान-सम्मान और बराबरी के अधिकार की लंबी लड़ाई लड़ी है। 
का. दीपंकर ने कहा कि देश में एक बड़बोला नेता प्रधानमंत्री बन गया है, परिवर्तन के नाम पर उसने गरीबों, किसानों, नौजवानों- सबको धोखा दिया है। खाद्य सुरक्षा, मनरेगा, शिक्षा में कटौती कर दी गई और पूरा बजट पूंजीपतियों के लिए खोल दिया गया। सरकार बनने के बाद मोदी ने देशी-विदेशी कंपनियों के लिए किसानों की जमीन छीनने का फरमान जारी किया, जिसे पूरे देश में किसानों और वामपंथी ताकतों ने खारिज करने पर मजबूर किया। उन्होंने कहा कि भाजपा-आरएसएस देश के सांप्रदायिक एकता को तोड़ रहे है। उन्होंने यही परिवर्तन लाया है कि वे गाय के नाम पर इंसान की हत्या कर रहे है। भाकपा-माले दंगा, लूट और नफरत की राजनीति करने वालों को कोई छूट नहीं दे सकती। मोदी सरकार कंपनियों और आरएसएस की कठपुतली है। महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और असुरक्षा के लिए यह सरकार जिम्मेवार तो है ही, यह निरंतर दलितों-अकलियतों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की साजिश कर रही है। इन साजिशों और जनता के जीने के अधिकार पर हमले का मुंहतोड़ जवाब भाकपा-माले देगी। देश की खनिज संपदा और प्राकृतिक संसाधनों नीलामी और साम्राज्यवाद की दलाली के कारण भाजपा के खिलाफ पूरे देश में आंदोलन का माहौल बन रहा है। किसान, मजदूर, श्रमिक, छात्र, लेखक-बुद्धिजीवी सब विरोध में खड़े हो रहे हैं। बिहार में भी इनका विरोध हो रहा है। भाकपा-माले किसी कीमत पर भाजपा की सरकार नहीं बनने देगी। 

का. दीपंकर ने महागठबंधन को निशाना बनाते हुए कहा कि पंद्रह साल तक लालू जी की सरकार रही और दस साल तक नीतीश कुमार की, इतने दिनों में इन लोगों ने किसानों के लिए कुछ नहीं किया। क्या ये इतने दिनों में सोन नहर का आधुनिकीकरण नहीं कर सकते थे, क्या बंद नलकूपों को चालू नहीं किया जा सकता था? इन लोगों ने भूमिहीनों को आवास और खेती की जमीन उपलब्ध नहीं कराई। जहां भी जमीन मिली, वह का. रामनरेश राम के संघर्ष के रास्ते के जरिए ही मिली। उन्होंने किसानों और बंटाईदारों के सवालों पर ही संघर्ष से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी, जिस लड़ाई को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। वे चाहते थे कि किसान-मजदूर बड़ी एकता बनाकर सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था को बुनियादी तौर पर बदल दें। जब वे विधायक बने तो उन्होंने 1942 की लड़ाई में शहीद किसानों के लिए स्मारक बनाने का काम किया।

प्रभात खबर 
का. दीपंकर ने कहा कि लालू जी कहते चलते हैं कि उन्होंने गरीबों को आवाज दी, यह गलत है। सच यह है कि गरीबों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया। गरीबों को ताकत देने का काम तो का. रामनरेश राम, जगदीश मास्टर, रामेश्वर यादव, बूटन मुसहर समेत भाकपा-माले के कामरेडों ने किया। का. दीपंकर ने कहा कि लालू जी ने आडवाणी का रथ रोककर भाजपा को रोकने का दावा किया, लेकिन दरअसल उन्होंने माले को रोकने के लिए नरक की ताकतों से हाथ मिलाने का ऐलान किया। वे गरीबों को ऊपर देखने को कहा, लेकिन नीचे जनसंहार होते रहे। उन्होंने देश में टाडा खत्म होने के बावजूद माले नेता शाह चांद को टाडा के तहत जेल में बंद रखा, जहां अंततः पिछले साल उनकी मौत हो गई। उन्होंने बात की सामाजिक न्याय की, लेकिन दलितों, अकलियतों, किसानों-मजदूरों के साथ अन्याय ही किया। नीतीश कुमार ने उसी सिलसिले को आगे बढ़ाया और अमीरदास आयोग को भंग करके भाजपाइयों को बचाने का काम किया। सारे जनसंहारी छोड़ दिए गए। 

का. दीपंकर ने कहा कि नीतीश के शासन में हाल यह है कि आरा कोर्ट में बम विस्फोट करवाने वाला जेल से बाहर आ जा रहा है और बिजली, शिक्षा, सिंचाई के सवाल पर संघर्ष करने वाले मनोज मंजिल को जेल में डाल दिया जाता है। किसानों की धान खरीद और सिंचाई के सवाल पर जुझारू संघर्ष चलाने वाले सतीश यादव की हत्या हो जाती है और लालू-नीतीश की पार्टियां निंदा का बयान तक नहीं देती। 

का. दीपंकर ने कहा कि का. रामनरेश की परंपरा यह है कि चुनाव भी जनता के बुनियादी सवालों से संघर्ष से अलग नहीं है। तरारी और जगदीशपुर से माले के उम्मीदवार किसान आंदोलनों के नेता हैं, संदेश और अगिआंव के माले प्रत्याशी नौजवान सभा के नेता रहे हैं, आरा के माले प्रत्याशी पूर्व छात्र नेता रहे हैं। ये सारे नेता विजयी होंगे तो विधानसभा में किसानों, नौजवानों और छात्रों की आवाज को बुलंद करेंगे। वे का. रामनरेश राम की परंपरा को आगे बढ़ाएंगे। इनकी जीत से बिहार में वास्तविक बदलाव के संघर्ष को मजबूती मिलेगी। बिहार बदलेगा तो देश भी बदलेगा। 
दैनिक जागरण 
इन दोनों सभाओं को संबोधित करते हुए माले प्रत्याशी सुदामा प्रसाद ने कहा कि माले ने जो जनघोषणापत्र जारी किया है, उसे लागू करने के लिए पूरी ताकत लगा दी जाएगी। 

अगिआंव में संकल्प सभा को का. रवि राय और सुदामा प्रसाद ने भी संबोधित किया। संचालन उपेंद्र यादव ने किया। मंच पर शहीद सतीश यादव की पत्नी उषा यादव, का. मनोज मंजिल की पत्नी शीला, मीरा जी, का. स्वदेश भट्टाचार्य, का. रामजी राय, का. कुणाल भी मौजूद थे। 

सहार में का. रामकिशोर राय ने संकल्प सभा का संचालन किया। सभा को सिद्धनाथ राम, कामता प्रसाद सिंह ने संबोधित किया।

राष्ट्रीय सहारा 
आज अगिआंव बाजार में एक संकल्प सभा हुई, जिसे अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय सचिव का. अरुण सिंह और माले प्रत्याशी चंद्रदीप सिंह ने संबोधित किया। आरा शहर समेत जिले के कई पंचायतों में का. रामनरेश राम को याद किया गया और उनकी तस्वीरों के साथ जुलूस निकाला गया। 


Sunday, October 25, 2015

भारतीय क्रांति के नायक का. रामनरेश राम

(जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण ने 2010 में कामरेड रामनरेश राम की अंतिम यात्रा में शामिल होने के बाद यह श्रद्धांजलि लेख लिखा था। आज कामरेड रामनरेश जी यानी पारस जी की पाँचवी बरसी है। भोजपुर की क्रांतिकारी जनता उन्हें याद कर रही है। इस मौके पर पेश है यह श्रद्धांजलि लेख, जो भारतीय क्रांति में उनकी ऐतिहासिक भूमिका का भी आकलन करता है )


आरा से एकवारी के लिए मोटरसाइकिल, चौपहियों से हजारों साथी का. रामनरेश राम की अंतिम यात्रा का आरंभ कर चुके थे। हर एकाध कि.मि. पर सैकड़ों लोग, शोकार्त्त किन्तु गगनभेदी नारों के साथ काफिले को रोक लेते। आंख भर देखते उनका निश्चल शरीर, जैसे कभी पहले उन्हें नहीं देखा हो। उन्हें फूल चढाते, अच्छी खासी तादाद में लोग सायकिल से लेकर मोटरसाइकिलों तक पर लाल झण्डा बांधे काफिले के साथ हो लेते। बहुत से लोग दौड़ते हुए उस वाहन के नज़दीक पहुंचते जिसपर वे शांत लेटे थे, कि कहीं आखीरी बार देखने से चूक न जाएं- आबाल-वृद्ध, महिलाएं। काफिला चले तो भी कुछ दूर तक, अनेक लोग दौड़ते चलते सामर्थ्य भर। याद आने लगे ऐसे ही दृश्य जब कामरेड वी.एम. की अंतिम यात्रा लेकर साथी चले थे, बनारस से आरा। इसी तरह भभुआ से आरा तक हर कुछ कि.मी. पर रुकते, रुद्ध-कंठ से नारे लगते, काफिले के साथ सामर्थ्य भर दौड़ते लोग। आरा से एकवारी तक अनेक जगह लोगों ने यात्रा पहुंचने की तैयारी में जनसभाएं शुरू कर रखी थीं। 

पारस जी ने गोरेे अंग्रेजों से लडते हुए अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। बाद को काले अंग्रेजों से अनथक संघर्ष करते उनका जीवन जारी रहा अंत तक। लगता है जैसे उन्हें लंबा जीवन मिला ही इसलिए कि किसी एक व्यक्ति के जीवन में हमारी क्रांतिकारी धारा की पूरी आनुवांशिकी, उसका प्रचण्ड शौर्य और अपार धैर्य, धक्कों के गहन शोक और बार-बार पुनर्नवा शक्ति की अविराम साधना, प्रतिरोध का सौंदर्य और उत्सर्ग का संगीत खुद को झलका सकें। बेशक, यह लंबा जीवन उन्होंने मौत से आंखें मिलाकर, उससे पंजा लडाकर जनता के लिए हासिल किया था. वह उन्हें सेंत में नहीं मिला था।

1857 के राष्ट्रीय विद्रोह से लेकर नक्सलबाड़ी की विरासत की जन-चेतना के अखंड प्रवाह का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है शाहाबाद की धरती और उसका प्रतिनिधि आख्यान है रामनरेश राम का जीवन-चरित्र। पारस जी का जीवन जनता के क्रांतिकारी आंदोलन की व्यापकता और गहराई, दोनों को प्रतीकित करता है। व्यापकता सिर्फ वर्तमान के भौगोलिक विस्तार में ही नहीं होती, वह विरासत के ऐतिहासिक काल-विस्तार में भी होती है. जो लोग महज पहले अर्थ में व्यापकता को देखते हैं, वे चाहते हैं कि हम अपने इतिहास को, अपनी पहचान को भूल जाएं। वे गहराई से काटकर व्यापकता को देखते हैं, इसलिए अधूरा और असंगत देखते हैं। सिर्फ पत्तियां गिनते हैं, जड की गहराई और तने की मुटाई नहीं देखते जहां से पत्तियों को भी जीवन-द्रव्य आता है। पारस जी का जीवन अपना इतिहास और अपनी पहचान भूलने के विरुद्ध, उससे विश्वासघात के विरुद्ध, एक विराट संदेश है। देश के कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में भोजपुर इस बात की भी मिसाल रहा कि कैसे जातिगत-वर्णगत शोषण का अंत भी वर्ग-संघर्ष के रास्ते ही संभव है, जब तक कृषि-क्रांति की धुरी पर आधारित भारत की जनवादी क्रांति का रास्ता न अपनाया जाएगा, भूमि-संबंध आमूलचूल नही बदले जाएंगे, तब तक छुआछूत और भयानक जातिगत और लैंगिक असमानता के खात्मे, वर्ण-व्यवस्था के खात्मे की लडाई भी नहीं हो पाएगी। आज से चार दशक पहले ही कामरेड रामनरेश राम और उनके साथियों के नेतृत्व में भोजपुर की जनता ने इस रास्ते को अंगीकार किया था। सामंती, जातिगत शोषण से निचली समझी जानेवाली जातियों की मुक्ति उन जातियों से आनेवाले मुट्ठी भर नवधनिक और दबंग प्रतिनिधियों द्वारा ज़मींदार-पूंजीपति राजसत्ता का हिस्सा बन जाने से नहीं हो सकेगी। कामरेड रामनरेश राम के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने यह बारंबार साबित किया कि ज़मीन, मज़दूरी और सामाजिक मान-सम्मान एक ही समेकित लडाई है, अलग-अलग नहीं। का. रामनरेश राम का राजनीतिक जीवन इस बात की भी मिसाल है कि क्रांतिकारी विपक्ष का निर्माण संसदीय और कानूनी निकायों में भी जन-आंदोलनों और वर्ग-संघर्ष के बूते ही होता है, अलग से नहीं, कि क्रांतिकारी विपक्ष मात्रा संसदीय दायरे की चीज नही है। 

जब सोन किनारे की अंतिम संकल्प सभा में महासचिव का. दीपंकर भट्टाचार्य ने मंच से कहा कि, ‘सत्तर के दशक में जिन नेताओं को हमने खोया, उन्हें इस तरह से विदाई नहीं दे पाए थे', तो वहां हजारों की तादाद में जुटे लोगों में बहुतों की ही आंखें बरबस ही भर आई थीं। धीरे-धीरे सूर्य भी आकाश से विदा ले रहा था, सोन की रेती पर हजारों मेहनतकश पांव अपने निशान बना रहे थे, कंधें पर सैकड़ों गमछे कल, आज और कल के आंसुओं और पसीने का सोख्ता बने लहरा रहे थे, सैकड़ों लाल झंडे बल्लियों और लाठियों पर गर्व से सर उठाए आगे की चुनौतियों से निबटने की तैयारी का उद्घोष कर रहे थे। न जाने कितनी मां-बहनें भी परंपरा को धता बताते हुए रेती में उतर पडी थीं। आखिर ये और किसी की नहीं उनके नायक, भारतीय क्रांति के नायक का. रामनरेश राम की अंतिम विदा की घड़ी थी।

Monday, September 21, 2015

आरा में ‘एजेंडा 2015 : बिहार में वामपंथी विकल्प’ कन्वेन्शन आयोजित हुआ


प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की ओर से 20 सितंबर रेडक्राॅस सभागार, आरा में आयोजित कन्वेंशन ‘एजेंडा 2015: बिहार में वामपंथी विकल्प’ में लेखक, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों ने भोजपुर जिले के तमाम सीटों से भाकपा-माले के उम्मीदवारों और पूरे शाहाबाद इलाके में वामपंथी उम्मीदवारों के समर्थन की घोषणा की।

कवि सुनील चौधरी ने कन्वेंशन के दृष्टि पत्र का पाठ किया। अध्यक्षता रामनिहाल गुंजन, डाॅ. नीरज सिंह, प्रो. रवींद्रनाथ राय और जितेंद्र कुमार ने संयुक्त रूप से की। संचालन जसम, बिहार के राज्य सचिव सुधीर सुमन ने किया। 

कन्वेंशन को संबोधित करते हुए जनवादी लेखक संघ, बिहार के अध्यक्ष डाॅ. नीरज सिंह ने कहा कि केंद्र और राज्य में जो सरकारें हैं, उन्होंने जनतंत्र के मायने बदल दिए हैं। जनाधिकारों पर ऐसी खुली चोट पहले कभी नहीं हो रही थी। नीतीश कुमार भी मोदी की तरह ही तानाशाह हैं। ये छद्म राष्ट्रवादी और छद्म सेकुलर गठबंधन एक-दूसरे को मुकाबले में बता रहे हैं, पर ये दोनों देश को बेचने को तैयार बैठे हैं। उन्होंने कहा कि प्रगतिशील-जनवादी साहित्यकार पिछले पच्चीस साल से एक मकसद और लक्ष्य के साथ सांप्रदायिक आंधी, सामंती उत्पीड़न और कारपोरेटपरस्ती के खिलाफ सृजनरत रहे हैं। आज वामपंथी दल भी एकजुट हुए हैं, जो यथास्थितिवादी और पूंजीवादी रास्ते के खिलाफ संघर्ष के लिहाज से बेहद उम्मीद भरी स्थिति है। आशा की यह किरण जरूर मशाल बनेगी। 

प्रगतिशील लेखक संघ, बिहार के महासचिव प्रो. रवींद्रनाथ राय ने कहा कि अमनपसंद, इंसानियतपसंद लोगों को वामपंथी विकल्प के साथ एकजुट होना चाहिए। उन्होंने जनपक्षधर मीडिया के निर्माण पर भी जोर दिया।

जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वरिष्ठ आलोचक रामनिहाल गुंजन ने मुक्तिबोध के हवाले से कहा कि मुक्ति कभी अकेले में नहीं मिलती, अगर वो है तो सबके साथ ही। उन्होंने कहा कि आज वामपंथ ही एकमात्र विकल्प है। 

जसम के राष्ट्रीय सहसचिव कवि जितेंद्र कुमार ने कहा कि वामपंथ ही वह रास्ता है, जिससे इस देश की बुनियादी समस्याओं का समाधान संभव है। इस चुनाव में वामपंथ के लिए बेहद अच्छी परिस्थिति है।

सीपीआई-एम के वरिष्ठ नेता रामप्रभाव मिश्र ने कहा कि विकल्प जनता के संघर्ष से ही निर्मित होगा।

हिरावल के संयोजक रंगकर्मी-गायक संतोष झा ने कहा कि कन्वेंशन का दृष्टिपत्र बताता है कि लड़ाई सिर्फ चुनाव तक महदूद नहीं है। लेकिन फिलहाल यह जरूरी है कि जिन ताकतों के खिलाफ लड़ना है, उनके खिलाफ प्रचार में उतरा जाए, वामपंथी विकल्प के पक्ष में पूरी ताकत से लगा जाए। महागठबंधन में शामिल दलों का भी शिक्षा और संस्कृति और जनता के बुनियादी मुद्दों के प्रति बहुत खराब रिकार्ड रहा है, भाजपा के रोकने के नाम पर महागठबंधन का पक्ष नहीं लिया जा सकता। इन दोनों गठबंधनों से मुक्ति के बगैर बिहार का भविष्य बेहतर नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि आरएसएस की गुंडावाहिनियों से आने वाले समय में लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों और इंसानी मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध व्यक्तियों को और भी बड़ी लड़ाई लड़ने को तैयार रहना होगा। 

इंसाफ मंच के जाकिर हुसैन ने कहा कि जो आजादी की लड़ाई में शामिल नहीं थे, वे आज सांप्रदायिक उन्माद फैला रहे हैं और ‘देशभक्ति’ का प्रमाणपत्र बांट रहे हैं। लालू बिहार में भाजपा को रोकने का दावा करते रहे, पर उन्होंने जिन सामाजिक शक्तियों को बढ़ावा दिया, उनके कंधे पर सवार होकर वह बिहार में आ गई, तो अब उसे भगाने का झांसा जनता को दे रहे हैं। अगर लालू और नीतीश एक नंबर के सेकुलर हैं तो उन्हें जवाब देना होगा कि भागलपुर दंगों के पीड़ितों को न्याय क्यों नहीं दिया। आतंकवाद के नाम पर साईकिल बनाने वाले से लेकर डाॅक्टरी की पढ़ाई करने वाले बेगुनाह नौजवानों को एनआईए ने उठाया, नीतीश ने इसका विरोध क्यों नहीं किया? क्यों नहीं कहा कि बिहार में एनआईए की जरूरत नहीं है? 

बिहार राज्य प्राथमिक शिक्षक संघ- गोप गुट के नेता अखिलेश ने कहा कि समान शिक्षा प्रणाली और इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले का समर्थन सिर्फ वामपंथी दलों ने किया है, शिक्षकों के आंदोलनों को उनका साथ मिला है, इस कारण भी उनका खुलकर समर्थन किया जाना चाहिए। 

आइसा नेता रचना सिंह ने शिक्षा और संस्कृति के सांप्रदायीकरण और निजीकरण की चर्चा की। वीमेंस काॅलेज में लड़कियों से छेड़खानी के बाद भड़के आंदोलन पर बिहार सरकार की चुप्पी पर सवाल खड़ा किया। उन्होंने कहा कि बिहार में शिक्षा और स्त्रियों की आजादी और सुरक्षा की स्थिति बहुत ही खराब है और इसके लिए नीतीश कुमार की सरकार पूरी तरह जिम्मेवार है। मीडिया द्वारा मोदी और नीतीश के चेहरे को चुनाव के केंद्र बनाने की आलोचना करते हुए प्रगतिशील व धर्मनिरपेक्ष शिक्षा, स्त्रियों के सम्मान, आजादी और सुरक्षा के लिए उन्होंने वाम दिशा में आगे बढ़ने की अपील की। 

कवि सुनील श्रीवास्तव ने कहा कि पूंजीवाद चकाचौंध पैदा करता है। वह धोखा और तिलिस्म फैलाता है। कारपोरेट हमारे सामने राजनीतिक विकल्प भी फेंकता है। इन्हीं विकल्पों के बीच चुनाव के कारण सरकारों का चरित्र नहीं बदल रहा है। इनके खिलाफ जनता के सही विकल्प के निर्माण में लगी शक्तियों को वैकल्पिक प्रचार तंत्र को भी मजबूत करना होगा।

शायर इम्तयाज अहमद दानिश ने कहा कि अल्पसंख्यकों के नफ्सियात (मनोविज्ञान) को समझना जरूरी है। दक्षिणपंथी पार्टियां उनकी नफ्सियाती कमजोरियों से फायदा उठाती हैं। पिछले चुनाव में जो दक्षिणपंथी पार्टी सत्ता में आई और अब जो आवैसी सामने आए हैं, वे दोनों इसी के उदाहरण हैं। 

कथाकार अनंत कुमार सिंह ने महाराष्ट्र के भाजपा सरकार के एक फरमान की चर्चा करते हुए कहा कि अब तो विधायक, मंत्री के खिलाफ बोलने पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करने का भय दिखाया जा रहा है। ऐसे लोगों को जनता क्यों चुने? उन्होंने कहा कि वामपंथी विकल्प होने से अब मतदाताओं के सामने नागनाथ और सांपनाथ में से किसी एक को चुनने की दुविधा नहीं रहेगी। उन्होंने इस कन्वेंशन के मकसद के प्रति कथाकार शीन हयात के समर्थन का संदेश भी पढ़ा।

प्रो. तुंगनाथ चौधरी ने कहा कि चुनाव के समय जातिवादी-सामंती शक्तियों के पक्ष में होने वाले धु्रवीकरण पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि इस चुनाव में एकजुटता से वामपंथी दलों में नई ऊर्जा का संचार होगा। 

जसम के राष्ट्रीय पार्षद कवि सुमन कुमार सिंह ने कहा कि सत्ताधारी पार्टियों के दो मोर्चों के विरुद्ध वाममोर्चा ही असली तीसरा मोर्चा है। 

कन्वेंशन में मौजूद आरा से भाकपा-माले उम्मीदवार क्यामुद्दीन ने कहा कि भाकपा-माले के नेता-कार्यकर्ता सांप्रदायिकता, अपराध, स्त्रियों के उत्पीड़न, व्यवसायियों की हत्या, सड़क, बिजली, स्वास्थ्य आदि सवालों पर साल के तीन सौ पैसठों दिन संघर्ष करते रहते हैं। चुनाव में उनकी जीत से विधानसभा के भीतर भी जनता के सवालों पर संघर्ष हो सकेगा। 

जलेस के बालरूप शर्मा, सीपीआई-एम के आरा नगर कमेटी सदस्य वैद्यनाथ पांडेय, कवि केडी सिंह, राजेश राजमणि, कवि संतोष श्रेयांश, अरविंद अनुराग, सतीश कुमार राणा ने भी इस मौके पर अपने विचार रखे। 

कन्वेंशन में जनकवि कृष्ण कुमार निर्मोही ने अपने चुनावी जनगीतों और शायर कुर्बान आतिश ने अपनी गजल को सुनाया।

आशुतोष कुमार पांडेय ने कन्वेंशन का तीन सूत्री प्रस्ताव पढ़ा। पहला प्रस्ताव वामपंथी उम्मीदवारों के समर्थन का था। दूसरा प्रस्ताव एफटीआईआई के छात्रों के आंदोलन के सौ दिन पूरा होने से संबंधित था। उनके आंदोलन के समर्थन में सभागार से बाहर एक पोस्टर भी लगाया गया था, जिस पर लेखक-संस्कृतिकर्मियों और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हस्ताक्षर किए। तीसरे प्रस्ताव में आरएसएस से जुड़े संगठनों द्वारा प्रगतिशील, विवेकवादी बुद्धिजीवियों पर हो रहे हमले का हर स्तर से प्रतिवाद तेज करने की अपील की गई थी। 

कन्वेंशन में कवि जर्नादन मिश्र, अरुण शीतांश, आदित्य नारायण, रविशंकर सिंह, हरिनाथ राम, मिथिलेश जी, दीनानाथ सिंह, श्रमिक नेता यदुनंदन चौधरी, छात्र नेता अजित कुशवाहा, पत्रकार प्रशांत, शमशाद, रंगकर्मी अरुण प्रसाद, अमित मेहता, विजय मेहता, रामदास राही, बनवारी राम, रामकुमार नीरज, किशोर कुणाल, संजय कुमार, माले के नगर सचिव दिलराज प्रीतम, राजेंद्र यादव आदि भी मौजूद थे। 








Thursday, September 17, 2015

लसाढ़ी में शहीद मेला संपन्न



शहीदों ने जिस आजादी के लिए शहादत दी, उसके लिए आज भी लड़ाई जारी है


स्वाधीनता आंदोलन से गद्दारी करने वाले आज भारत की जनता और लोकतंत्र से गद्दारी कर रहे हैं

सत्ताधारी गठबंधनों को लसाढ़ी के शहीदों के मूल्यों और सपनों से कुछ लेना-देना नहीं



‘‘लसाढ़ी का शहीद स्मारक किसी पूंजीपति, अपराधी या माफिया के सहयोग से नहीं, बल्कि जनता के सहयोग और का. रामनरेश राम के विधायक फंड से बना था। 1857 के जनविद्रोह और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भोजपुर की सपूतों ने जनप्रतिरोध की जो मिसाल पेश की, रामनरेश राम उसी की कड़ी थे, इसीलिए लसाढ़ी, ढकनी, चासी के जो किसान अंग्रेजों के जुल्म और अन्याय के राज के खिलाफ लड़ते हुए 15 सितंबर 1942 को शहीद हुए थे, उनके इतिहास को सामने लाने का काम उन्होंने ही किया।’’ लसाढ़ी में आयोजित सभा को संबोधित करते हुए मुख्य वक्ता इंकलाबी नौजवान सभा के राज्य अध्यक्ष राजू यादव ने यह कहा। हर वर्ष की तरह यहां लसाढ़ी के शहीदों की याद में भाकपा-माले द्वारा शहीद मेला का आयोजन किया गया था। 

जबसे यह स्मारक बना है, एकाध वर्ष ही ऐसा रहा होगा, जब इस रोज मैं भोजपुर से बाहर रहा होऊंगा। अक्सर लसाढ़ी के शहीद मेला में मैं पहुंच ही जाता हूं। इस बार आरा पहुंचा, तो सूचना मिली कि चुनाव आचार संहिता और जानबूझकर जटिलता पैदा करके भोजपुर जिला प्रशासन शहीद मेला के आयोजन की स्वीकृति न देने की साजिश रच रहा है। वैसे भी थानों की पुलिस को तो चुनावी आचार संहिता के नियम-कायदों और उसकी बारीकियों से भी कुछ लेना-देना नहीं होता। उनके हाथ तो एक ऐसा हथियार लग जाता है, जिससे वे ग्रामीण इलाके में सत्ताधारी वर्ग की राजनीति के इशारे पर राजनीतिक प्रचार में व्यवधान खड़ा करते हैं। लेकिन साथी अड़ गए थे कि आयोजन की प्रशासनिक स्वीकृति के लिए जो भी नियम कायदा है, उस पर अमल किया गया है, अगर प्रशासन इजाजत न देगा, तब भी शहीद मेला लगेगा, उसको आचार संहिता उल्लंघन का मामला बनाना है, तो बनाए। अंततः प्रशासन को झुकना पड़ा। 

दरअसल 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय भोजपुर में आंदोलनात्मक गतिविधियां बहुत तेज थीं, आंदोलन के दमन के लिए ही 15 सितंबर को ब्रिटिश सेना के बलूची रेजिमेंट के सैनिकों ने लसाढ़ी पहुंची थी। लसाढ़ी, चासी और ढकनी नामक गांवों के किसान परंपरागत हथियारों के साथ उनका मुकाबला करने चल निकल पड़े थे। इस लड़ाई में 11 किसान और 1 महिला अकली देवी शहीद हुए थे। आजादी के वर्षों बाद तक इन शहीदों की याद किसी को नहीं आई, तो इसलिए भी नहीं आई, क्योंकि आजाद भारत में सरकार पुलिस-फौज के बल पर ही शासन करने की आदी थी। परंपरागत हथियारों के साथ सुविधासंपन्न सत्ताधारी फौज को चुनौती देने वाले इन किसानों के इतिहास पर धूल जमने देना ही उनके हित में था। लेकिन भावना कभी मरती नहीं। 1942 में कुछ ही दूर एकवारी गांव के एक किशोर ने उस फायरिंग की आवाज सुनी थी, जिसमें बहादुर किसान मारे गए थे। वे थे रामनरेश राम। बड़े होकर एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट के बतौर उन्होंने समाज और सत्ता को बदलने के संघर्ष का नेतृत्व किया। सत्तर के सामंतवाद विरोधी किसान संघर्ष के दौरान लसाढ़ी के किसानों के प्रतिरोध की परंपरा को उन्होंने बुलंदियों पर पहुंचाया। जो जनप्रतिनिधि हो वह किसानों और मजदूरों के हित में काम करे, उसकी बर्बादी और दमन के लिए जिम्मेवार व्यवस्था का सहयोगी न बने, इसी सपने के साथ तो 1967 में कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में सहार विधानसभा के लिए चुनाव लड़ रहे थे। लेकिन सामंती ताकतों को उनकी जीत मंजूर न थी। मुखिया के बतौर अपनी जनपक्षधर कार्यशैली की वजह से वे काफी लोकप्रिय थे। सामंतों ने हार के भय से उनके साथी जगदीश मास्टर पर जानलेवा हमला किया। इसके बाद ही उनके हथियारों का जवाब हथियार से देने के दौर की शुरुआत हुई। सामंती आधारों पर टिकी सरकारों और उनके पुलिस-फौज ने 1942 के किसानों की तरह ही जगदीश मास्टर, रामेश्वर अहीर, बूटन राम समेत कई नेतृत्वकारियों की हत्या करके सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की इस लड़ाई को कुचल देने का सपना देखा। लेकिन भूमिगत रामनरेश राम ने सामाजिक बदलाव और राजनीतिक दावेदारी की लड़ाई को जारी रखा। 28 वर्षों बाद गरीब-मेहनतकश जनता के प्रतिनिधि के रूप में वे बिहार विधानसभा में दाखिल हुए। विधायक के तौर पर उन्होंने 1942 में लसाढ़ी में शहीद हुए किसानों का स्मारक बनाने का निर्णय लिया। सत्ताधारी राजद के लोग कटाछ करते रहे कि रामनरेश राम ‘गोईंठा में घी सुखा रहे हैं’, लेकिन रामनरेश राम इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट थे कि वे वर्तमान और भविष्य की लड़ाइयों के लिए एक प्रेरणा स्थल का निर्माण कर रहे हैं। 

पिछले कुछ सालों से जिला प्रशासन भी भारी लाव-लश्कर के साथ इन शहीदों के स्मारक पर फूल माला चढ़ाने पहुंचता है। सरकार के मंत्री भी होते हैं और तमाम सत्ताधारी दलों के छोटे-बड़े नेता भी। लेकिन वे सिर्फ रस्म अदायगी के लिए पहुंचते हैं और प्रायः इस मौके पर ग्रामीणों द्वारा किसी मुद्दे से संबंधित मांग से बचने या हवाई वादे करके जल्दी खिसकने के चक्कर में रहते हैं। स्मारक निर्माण में का. रामनरेश राम की भूमिका को भूले से भी याद नहीं किया जाता, लेकिन का. रामनरेश राम ने शहीद मेला आयोजित करने की जिस परंपरा की शुरुआत की थी, वह जारी है और उसमें हर साल सामयिक राजनीतिक-सामाजिक चुनौतियों पर गंभीर चर्चा होती है। इस साल भी शहीद मेला में भाकपा-माले ने संकल्प सभा का आयोजन किया। संचालक उपेंद्र यादव ने कहा कि यह आयोजन कोई औपचारिकता नहीं है। शहीदों ने जिस आजादी के लिए शहादत दी, उसके लिए आज भी लड़ाई जारी है। जब तक गरीबों का राज कायम नहीं होता, तब तक यह लड़ाई जारी रहेगी। अखिल भारतीय किसान सभा नेता विमल यादव ने कहा कि आजादी के वर्षों बाद किसी को इन शहीदों की सुध नहीं आई थी। कम्युनिस्ट क्रांतिकारी रामनरेश राम ने इन क्रांतिकारियों की सुध ली। 

स्मारक बनने के बाद यहां हर साल जिले के प्रशासनिक अधिकारी आने लगे हैं, पर उन्हें इन शहीदों की लड़ाई में भला क्यों दिलचस्पी होगी। इस बार तो अधिकारी 15 सितंबर की जगह 15 अगस्त ही रटते रहे। क्या करें बेचारे, स्वाधीनता आंदोलन को इन लोगों के जेहन में 15 अगस्त और 26 जनवरी तक ही सीमित रख दिया गया है। 
अपने देश मे जिस तरह की पार्टियों की सरकारें बन रही हैं, उनकी बेइंसाफी और जनविरोधी रवैये के खिलाफ खड़े होने वाले रीढ़दार अधिकारी भी बहुत कम नजर आते हैं। शासकवर्गीय पार्टियां उन्हें अपने एजेंट के बतौर इस्तेमाल करने की कोशिश करती हैं। चुनावों में तो यह और भी स्पष्ट दिखने लगता है। 

बिहार विधानसभा चुनाव करीब है, जाहिर है इसका असर इस बार वक्ताओं के वक्तव्य में दिखना ही था। मुख्य वक्ता का. राजू यादव ने कहा कि पिछले लोकसभा चुनाव में इस उम्मीद पर जनता ने भाजपा को वोट दिया था कि वह काला धन वापस लाएगी, हर व्यक्ति को पंद्रह लाख रुपये मिलेंगे, महंगाई और भ्रष्टाचार कम होगा। लेकिन यह सब जुमलेबाजी साबित हुआ। उन्होंने कहा कि भाजपा नेताओं का गद्दारी का इतिहास पुराना है। इन लोगों ने स्वाधीनता आंदोलन के साथ गद्दारी किया और आज भारत की जनता और लोकतंत्र के साथ गद्दारी कर रहे हैं। लसाढ़ी, ढकनी, चासी के लोगों ने ब्रिटिश हुकूमत से मुकाबला करने का रिकार्ड है, जबकि भाजपा नेताओं का रिकार्ड अंग्रेजों से माफी मांगने का है। 

राजू यादव ने कहा कि लालू और नीतीश भाजपा के खिलाफ प्रतीकात्मक लड़ाई लड़ रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि बिहार की जमीन में भाजपा को जड़ जमाने का मौका इन्होंने ही दिया। भाजपा यहां कहीं बाहर से नहीं आई है, बल्कि 1990 के बाद राजद-जद-यू के शासनकाल में सामंती ताकतों के समर्थन से ही उसे जगह मिली। 

माले जिला सचिव का. जवाहरलाल सिंह ने कहा कि लालू-नीतीश ने सामंती ताकतों का मनोबल बढ़ाया, भूमि सुधार और बंटाईदारी से मुकरते रहे। बिहार में भाकपा-माले पिछले पच्चीस वर्षों में लोगों की बुनियादी सुविधाओं, किसान, मजदूरों, नौजवानों की समस्याओं के समाधान और सामाजिक न्याय, बराबरी और तमाम लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए आंदोलन करती रही। लालू-नीतीश के शासन में आंदोलन के कारण माले नेताओं पर केस किया गया और सामंती ताकतों को तांडव मचाने की छूट दी जाती रही। लालू-नीतीश हमेशा सामंती ताकतों के पक्ष में खड़े रहे। ये भाजपा को जमीनी स्तर पर शिकस्त दे ही नहीं सकते। सच तो यह है कि भाजपा नेतृत्व वाला गठबंधन और महागठबंधन दोनों जनता का भरोसा खो चुके हैं। 

उन्होंने सवाल उठाया कि हाल में कोबरा पोस्ट के खुलासे में जब रणवीर सेना के कमांडरों ने जनसंहारों में अपनी संलिप्तता को कुबूल किया, तो लालू-नीतीश चुप क्यों रहे? जब किसानों के लिए धान की कीमत, सिंचाई, बिजली, शिक्षा, स्कूल आदि के आंदोलन करने वाले का. सतीश यादव की हत्या हुई तो लालू-नीतीश या राजद के किसी अधिकृत नेता ने गिरफ्तारी और सजा की मांग तो दूर, निंदा तक नहीं किया। उन्होंने कहा कि ये लोग भाजपा से कतई नहीं लड़ सकते। भाजपा जिस परिवर्तन की बात कर रही है, उसका मतलब है बर्बर सामंती वर्चस्व की वापसी, जिसका नमूना सैकड़ों गरीबों, महिलाओं और बच्चों की हत्या के दोषी ब्रह्मेश्वर सिंह की हत्या के बाद आरा से लेकर पटना तक मचे तांडव में लोग देख चुके हैं। 

आइसा के राज्य सचिव का. अजीत कुशवाहा ने कहा कि दोनों गठबंधन लोगों को एक दूसरे का डर दिखा रहे हैं, पर लसाढ़ी के शहीद जिन मूल्यों और सपनों के लिए शहीद हुए, उनसे इनका कुछ लेना-देना नहीं है। उन्होंने छात्रों को इन शहीदों का इतिहास पढ़ाए जाने की मांग की। 

अखिल भारतीय ग्रामीण खेत मजदूर सभा के जिला सचिव का. सिद्धनाथ राम ने कहा कि अंग्रेजों ने सोचा था कि लसाढ़ी के किसानों का कत्ल करके वे आजादी और स्वराज के सपने के कुचल देंगे, लेकिन वे विफल हुए। इसलिए शासकवर्ग जितनी भी नृशंसता पर उतारू हो जाए, सामंती समाज और पूंजीवादी समाज को एक दिन खत्म होना ही होगा। 

निर्मोही 
सभा को आइसा नेता रचना सिंह, आरा नगर कमेटी के सचिव का. दिलराज प्रीतम, आइसा, भोजपुर के अध्यक्ष का. शिवप्रकाश रंजन, संदेश प्रखंड कमेटी सदस्य का. धर्मेंद्र सिंह, चरपोखरी प्रखंड कमेटी सदस्य का. कैलाश पाठक ने भी संबोधित किया। जनकवि कृष्ण कुमार निर्मोही ने इस मौके पर का. सतीश यादव की याद में रचित एक गीत तथा कुछ चुनावी जनगीतों का गायन किया। सभा की अध्यक्षता का. उपेंद्र यादव ने की। 

इस मौके पर का. रघुवर पासवान, का. जितेंद्र कुमार, शहीद सतीश यादव की पत्नी उषा कुंवर, सबीर कुमार, शिला कुमारी, उपेंद्र पासवान, जीतन चौधरी, नीलम कुंवर, दसईं जी आदि मौजूद थे। 

इस स्मारक पर तिरंगा झंडा ही फहराया जाता है। यह बड़ा दिलचस्प है कि भाकपा-माले के नेता, कार्यकर्ता और समर्थक लाल झंडा लेकर यहां पहुंचते हैं और कोई वरिष्ठ कामरेड तिरंगा झंडा फहराते हैं। शहीदों के प्रति कम्युनिस्टों के सम्मान का यह भी एक उदाहरण है। इस बार झण्डात्तोलन कामरेड सिद्धनाथ राम ने किया।चुनावी आचार संहिता के कारण इस बार लोगों के हाथ मेें लाल झंडे नहीं थे, पर शहीदों के प्रति गहरा सम्मान और आज के दौर में आजादी, इंसाफ और समानता की लड़ाइयों को आगे बढ़ाने का संकल्प सबके चेहरे पर फहर रहा था। इस पर भला किसी आचार संहिता की पाबंदी कैसे लग सकती है!





 

Saturday, September 5, 2015

प्रो. एमएम कलबुर्गी की हत्या के खिलाफ आरा में प्रतिरोध मार्च



फासीवाद के खिलाफ सामूहिक प्रतिरोध संगठित करना होगा 

3 सितंबर को पटना में प्रो. एमएम कलबुर्गी की हत्या के खिलाफ प्रगतिशील-जनवादी संगठनों ने प्रतिरोध मार्च निकाला था। इसके अगले दिन देर शाम में हमने आरा में 5 सितंबर को प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, छात्र संगठन आइसा, नाट्य संस्था युवानीति और बिहार राज्य प्राथमिक शिक्षक संघ- गोपगुट की ओर से प्रतिरोध मार्च करने का निर्णय लिया। तैयारी के लिए कम समय मिला। शनिवार, कार्यालयों और काॅलेजों में छुट्टी के बावजूद करीब चालीस साहित्यकार, शिक्षक, संस्कृतिकर्मी, छात्र और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता प्रदर्शन में शामिल हुए।

आजकल हर तरह के आयोजन के लिए प्रशासन को सूचना देने का नियम बना दिया गया है। लेकिन हमारे पास इसके लिए समय बिल्कुल नहीं था। हम जनकवि भोलाजी के पान दूकान के पास जुटे। वे अब नहीं हैं, पर उनकी दूकान है, जहां बैठकर वे अक्सर मूर्तिपूजा करने वालों के समाजविरोधी आचरण की खबर लेते थे, किसी-किसी से जरूर उनकी बहस हुई, पर किसी ने उनको हत्या करने की कभी धमकी नहीं दी थी। वे होते तो जरूर मूर्तिपूजा, अंधविश्वास, अवैज्ञानिक सोच के खिलाफ वैचारिक संघर्ष करने वाले प्रो. कलबुर्गी की हत्या पर कुछ काव्यात्मक पंक्तियां जरूर सुनाते, जैसा कि उन्होंने अपने एक गीत में लिखा था- कवन हउवे देवी देवता कवन ह मलिकवा/ बतावे केहू हो, आज पूछता गरीबवा...माटी, पत्थर, धातु और कागज पर देखनी/ दिहनी बहुते कुछुवो न पइनी/ इ लोरवा इ लहूवा से बूझल पियसवा/ बतावे केहू हो आज पूछता गरीबवा। प्रतिवाद मार्च का बैनर भोलाजी के छोटे लड़के मंगल माही ने ही लिखा था। उसमें मैं एकाध संशोधन करवा रहा था, तभी बगल के थाने के एक पुलिसवाले को साथियों से कुछ पूछते देखा, शायद ‘प्रतिरोध मार्च’ के विषय के बारे में जानकर वह वहां से चला गया। 
फासीवाद हो बर्बाद, इंकलाब जिंदाबाद के जोशीले नारे के साथ मार्च की शुरुआत हुई। लेखक-बुद्धिजीवियों की हत्या क्यों, मोदी सरकार जवाब दो के नारे भी गूंजे। प्रतिरोध मार्च रेलवे स्टेशन परिसर में पहुंचकर सभा में तब्दील हो गया। सभा को संबोधित करते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के राज्य महासचिव प्रो. रवींद्रनाथ राय ने कहा कि देश में हिटलरशाही चल रही है। प्रो. कलबुर्गी, का. गोविंद पंसारे और डाॅ. नरेंद्र दाभोलकर जैसे महान शख्सियतों की हत्या की जा रही है और हत्यारों को पकड़ा नहीं जा रहा है। इन हत्यारों को संरक्षण देने वाले इंसानियत, विज्ञान और विकास के विरोधी हैं। वे जितनी भी हत्याएं कर लें, पर उनके खिलाफ वैचारिक लड़ाई जारी रहेगी। 

अस्वस्थता के कारण जलेस के राज्य अध्यक्ष डाॅ. नीरज सिंह प्रतिवाद मार्च में शामिल नहीं हो पाए, पर सभा के लिए उन्होंने अपना संदेश भेेजा था, जिसे कवि सुनील श्रीवास्तव ने पढ़ा। नीरज सिंह का मानना है कि प्रो. कलबुर्गी, का. गोविंद पंसारे और डाॅ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्याएं लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। इस देश में फासीवाद के तेज कदमों की आहट साफ तौर पर सुनाई पड़ने लगी है। सभी तरह के लोकतंत्रवादियों, समाजकर्मियों, साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों को इस खतरे को समझते हुए एक स्वर से इसके विरुद्ध सामूहिक प्रतिरोध संगठित करना चाहिए। 

शाम हो रही थी, युवा कवि हरेराम सिंह विक्रमगंज से आए थे, उनकी ट्रेन का समय हो चुका था, पर अपने गुस्से का इजहार उन्हें ज्यादा जरूरी लग रहा था। उन्होंने धर्म की आड़ में चलने वाले शोषण-उत्पीड़न और भेदभाव के अतीत और वर्तमान का जिक्र किया। आज के बाबाओं-महात्माओं के पास मौजूद अकूत संपदा पर सवाल उठाया और कहा कि किसान-मजदूरों को इनके और इनको संरक्षण देने वाली राजनीति के खिलाफ संघर्ष के लिए तैयार होना होगा। 

आइसा, बिहार की राज्य कार्यकारिणी सदस्य रचना ने कहा कि बुद्धिजीवियों की हत्या दरअसल उनकी सोच की हत्या की कोशिश है। आरएसएस राष्ट्रवाद के नाम पर धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता और जातिभेद को बढ़ावा दे रही है। इसी मकसद से वह पाठ्यक्रम में भी तब्दीली कर रही है। लेकिन उसके करतूत देश को ऐसे मुहाने पर ले जा रहे हैं, जहां उसके खिलाफ भारतीय जनता का एकताबद्ध प्रतिरोध होना अवश्यंभावी है। व्यक्ति की हत्या करके वे प्रगतिशील और विवेकवादी सोच की हत्या नहीं कर सकते।

जसम के राष्ट्रीय सहसचिव कवि जितेंद्र कुमार ने कहा कि धार्मिक-सामाजिक शोषण-उत्पीडन का विरोध किसी भी सच्चे लेखक का कर्तव्य है। अमेरिका तक में लेखक सरकारों की आलोचना करते हैं, पर उनकी हत्या इस तरह नहीं होती। लेकिन हमारे देश में सत्ता में ऐसी शक्तियां आई हैं, जो कहती हैं कि जो धार्मिक अंधविश्वास और मूर्तिपूजा का विरोध करेगा, उसकी हत्या करेंगी। प्रो. कलबुर्गी, का. पंसारे और डाॅ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्याएं एक पैटर्न पर की गई हैं। यही वे जनविरोधी ताकतें हैं, जो स्त्रियों की बराबरी और आजादी के विचार को बर्दाश्त नहीं करतीं। 

जसम के राष्ट्रीय पार्षद सुनील चौधरी ने कहा कि कारपोरेट और सांप्रदायिक शक्तियों के साथ गठजोड़ के बल पर मोदी की तानाशाही चल रही है। सिर्फ अभिव्यक्ति की आजादी ही नहीं, बल्कि आज जनता के सारे लोकतांत्रिक अधिकार भी खतरे में हैं। इसलिए इनके खिलाफ जनता की व्यापक एकजुटता जरूरी है। साहित्यकार, संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों को इसी प्रयास में लगना चाहिए। 



संचालन करते हुए मैंने इस ओर ध्यान दिलाया कि इस देश में धार्मिक सुधार, जातिगत समानता और सर्वधर्म सम्भाव की जो वैचारिक परंपरा रही है, आरएसएस उस पर सुनियोजित तरीके से हमले कर रही है। इसके साथ ही सामाजिक-सांप्रदायिक भेदभाव, उत्पीड़न, धार्मिक रूढ़िवाद और कट्टरता के खिलाफ भारत में आलोचना और प्रतिरोध की अपनी जो तर्कशील और विवेकवादी परंपरा रही है, वह उसे बर्दास्त नहीं है। एक ओर देश में निरंतर सांप्रदायिक विभाजन, विद्वेष और कत्लेआम को प्रोत्साहित करने वाले आरएसएस प्रमुख को जेड श्रेणी की सुरक्षा उपलब्ध कराना और दूसरी ओर प्रो. कलबुर्गी, का. गोविंद पंसारे और डाॅ. नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारों को खुला छोड़ देना, भारत के लोकतंत्र पर गंभीर सवाल खड़े करता है। सभा में महाराष्ट्र सरकार द्वारा जनप्रतिनिधियों- मेयर, विधायक, सांसद की आलोचना या विरोध करने वालों को देशद्रोही करार देने वाले फरमान की भी भर्त्सना की गई। 

सभा में मैंने प्रो. कलबुर्गी पर जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण के लेख के अंश भी पढ़े। उन्होंने लिखा है कि प्रो. कलबुर्गी कन्नड़ के ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने उस क्षेत्र के इतिहास को इतिहास के आधिकारिक विद्वानों से भी ज्यादा वैज्ञानिक ढंग से उद्घाटित किया। वे 12 वीं सदी के क्रांतिकारी संत बसवेश्वर के जीवन और दर्शन के श्रेष्ठ व्याख्याकार थे। बसवन्ना की ही तरह वे अपने विचारों के लिए ही जिए और मरे। लेकिन अपने तार्किक और वस्तुवादी दृष्टिकोण के कारण खुद लिंगायत धर्म-प्रतिष्ठान से भी उनका टकराव होता रहा। उन्होंने कन्नड़ साहित्य, इतिहास और संस्कृति से संबंधित शोधपरक निबंध लिखे जो मार्ग शृंखला की पुस्तकों में संकलित हैं। उसी शृंखला के पहले खंड से उन्हें दो अध्याय लिंगायत मठाधीशों के दबाव में वापस लेने पड़े थे। इसी शृंखला की पुस्तक ‘मार्ग 4’ पर उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड 2006 में मिला। सन 2012 में कर्नाटक सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने प्रो. कलबुर्गी को उस समिति का प्रमुख बनाया जिसे आदिलशाही वंश के अधीन रचे गए समस्त साहित्य को कन्नड़ में लाने का कार्यभार सौंपा गया। श्री कलबुर्गी आदिलशाही वंश को दक्कन के पठार में सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अलमबरदार मानते थे। 

प्रणय कृष्ण के अनुसार प्रो. कलबुर्गी वचन साहित्य के महान अध्येता थे। उनके संपादन में ही 450 से भी ज्यादा संतों की वाणियों को 15 खण्डों में ‘समग्र वचन सम्पुट’ नाम से संकलित करने की शुरुआत हुई थी। वे सवाल उठाते हैं कि क्या इन संतों ( शरण और शरणियों) ने वेदों पर व्यंग्य नहीं किया, कर्मकांडों का उपहास नहीं किया? क्या देवी-देवताओं की उपासना का तिरस्कार नहीं किया? उनकी ह्त्या के बाद भी जिस तरह विश्व हिन्दू परिषद् के प्रतिनिधि टी.वी. चैनल पर श्री कलबुर्गी पर देवी-देवताओं के तिरस्कार का आरोप लगा रहे थे और प्रकारांतर से लोगों के विक्षोभ के बहाने उनकी हत्या के औचित्य का संकेत कर रहे थे, क्या वे बसवन्ना, अक्क महादेवी, अल्लम प्रभू, चेन्न बसवन्ना, दोहर काकय्या, चेन्नैया, सिद्धरमा, गणचार और सैकड़ों शरणों और शरणियों से अतीत में जाकर बदला लेंगे? 

प्रणय कृष्ण ने इस ओर भी ध्यान दिलाया है कि प्रो. कलबुर्गी ने 103 पुस्तकें लिखीं और यह साबित किया कि आज के समय में भी मातृभाषाओं में चिंतन और शोध के उच्चतम शिखर छुए जा सकते हैं। वे मातृभाषाओं में शिक्षा देने के प्रबल हिमायती थे और हाल ही में उन्होंने कर्नाटक सरकार से मांग की थी कि वह केंद्र सरकार से अपनी भाषा नीति स्पष्ट करने को कहे।

प्रो.कुलबर्गी, कामरेड गोविंद पंसारे और डा. दाभोलकर की हत्याएं तथा पाकिस्तान और बांग्लादेश में परिपाटी से हट कर मुक्त विचार रखनेवालों की हत्याएं यह बताती हैं कि धर्मसत्ता, राजसत्ता, पितृसत्ता, पूंजी की सत्ता और वर्ण-व्यवस्था की सत्ता के व्यापक गठजोड़ के बावजूद सही और सच्चे विचारों से कानून, राजनीति और विचारधारा के स्तर पर निपट पाना इन ताकतों के लिए मुश्किल पड़ रहा है। इसीलिए व्यक्तिगत हत्याओं का सहारा लिया जा रहा है। नए भारत की खोज के लिए शहीद हुए इन अग्रजों के उसूलों और विचारों को आम जनता के बीच रचनात्मक प्रयासों से लोकप्रिय बनाना ही वह कार्यभार है जो उस लोकजागरण के लिए जरूरी है जिस के लिए वे जीवन भर संघर्षरत रहे और जो भारत के भविष्य की एकमात्र आशा है। 

इस मौके पर वरिष्ठ आलोचक रामनिहाल गुंजन, जनपथ संपादक अनंत कुमार सिंह, शिक्षक नेता अखिलेश, धर्म कुमार, रामकुमार नीरज, शायर इम्तयाज दानिश, कवि अरुण शीतांश, सुमन कुमार सिंह, ओमप्रकाश मिश्र, सुनील श्रीवास्तव, संतोष श्रेयांस, कवि-चित्रकार रविशंकर सिंह, रंगकर्मी राजू रंजन, आशुतोष पांडेय, विजय मेहता, रंगकर्मी सूर्यप्रकाश, पत्रकार प्रशांत, वार्ड पार्षद गोपाल प्रसाद, दीनानाथ सिंह, बालमुकुंद चौधरी, दिलराज प्रीतम, आइसा के संदीप, राकेश कुमार, श्याम सुंदर, रंजन, राजू राम, विक्की, अनिल, सुशील यादव आदि मौजूद थे। 

Wednesday, June 17, 2015

परम्परा में जो कुछ सुंदर है हम उसे जिएंगे

(साथी सुनील सरीन के कन्धों पर युवानीति की जिम्मेवारी थी. उनका घर संस्कृतिकर्मियों और भोजपुर के वामपंथी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं का एक अड्डा था. उस वक्त नाटकों में काम करना शुरू नहीं किया था. लेकिन आरा शहर के जिस मुहल्ले में उनका घर है वहीँ मेरा ननिहाल है, लिहाजा बचपन से ही उनके घर आना जाना था. उनकी शादी उस वक्त पूरे मुहल्ले में चर्चा का विषय थी. शादी के बाद अनुपमा भाभी ने नुक्कड़ नाटकों में अभिनय किया, नाटक टीम के साथ गांव दौरे में भी गयीं. परम्परागत रीति रिवाज  से अलग हट कर जो उनकी शादी हुई थी वह तो महत्वपूर्ण था ही, हमारे लिए उससे भी आगे बढ़ा हुआ कदम था अनुपमा भाभी का नाटकों में अभिनय. उस वक्त युवानीति से कई लड़कियां जुडी थीं. सुनील भइया और अनुपमा भाभी रोजी-रोटी के चक्कर में आरा से दूर चले गए. अब भी आरा शहर के साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में स्त्रियों की मौजूदगी बहुत ही कम है. जब भी मैं इस बारे में सोचता हूँ तो मुझे आरा के सांस्कृतिक जगत की इस जोड़ी की याद आती है. इन्होंने वैवाहिक जीवन के 25 साल पूरे कर लिए हैं. उन्हें हार्दिक बधाई. आइए उस शादी को याद करें, खुद सुनील सरीन की जुबानी- सुधीर सुमन) 



शपथग्रहण 
माँ पिताजी के साथ 
25 साल पहले। 17 जून को पटना जिले के मोरियावां गांव में हम जीवन-साथी बने थे। भीषण गर्मी थी। छत पर खुले में दरियां व बेडशीट बिछा दिए गए थे। अनु के रिश्तेदार, संगी-साथी और मेरे साथियों-रिश्तेदारों को मिलाकर 150 से अधिक लोग जुटे थे। एक नये किस्म का विवाह हो रहा है– यह देखने के लिए अगल-बगल की छतों पर भी गांव भर के लोग आ जुटे थे। पड़ोसी भी अपने अपने तरीके से इस शादी में हिस्सेदार हो रहे थे। बगल की छत पर बैठी कुछ महिलाएं बारातियों के स्वागत में गीत मतलब गारी गा रही थीं।

न बैंड बाजा न माड़ो, न डंडा न चौका। कोई फिजुलखर्ची नहीं। एक पेट्रोमेक्स जला हुआ था रोशनी के लिए। झावेंदार ईटों से बने पड़ोस की दीवार से सटा कर लकड़ी की दो कुर्सियां लगा दी गई थीं। कुर्सियों को चादर से ढक दिया गया था। मुझे याद रहा है– मेरी कुर्सी की एक बांह हिल रही थी।

अनु शादी के जोड़े में सजी थी। मेरे लिए भी साथी एश्तियाक ने भाड़े पर एक शेरवानी जुटा दिया था 25 रु. के किराए पर। मेरी बहनों ने पगड़ी और लखनवी जूते खरीद दिए थे।

शपथपत्र पर हस्ताक्षर 
बारात हाईस्कूल के हाते में ठहरी थी। हमारे पड़ोसी पंडित रामसुभग मिश्र 'रासू' साथ गए थे। एक मुल्ला दोस्त भी थे। मेरे कैथोलिक विद्यालय का एक सहपाठी भी था जो पादरी बनने वाला था। अनु के पिताजी आरपी वर्मा ने इस शादी के लिए अपने एक परिचित भंते (बौद्ध भिक्षुक) को आमंत्रित किया था। अर्जक संघ के लोग भी थे। जन संस्कृति मंच के हमारे
कई साथी थे। शादी किस तरह से हो इसकी चर्चा जनवासे में चल रही थी। लगभग सबने ही यह बताया कि विवाह के मुख्य रूप से चार चरण हैं। पहले वर-वधु का परिचय होता है, फिर शादी की कुछ विधियां होती हैं। शपथ-ग्रहण कराया जाता है और अंत में सभी आशीर्वाद देते हैं। हमारी शादी में इस कार्य का बीड़ा उठाया था पत्रकार-कथाकार रामेश्वर उपाध्याय ने।

नैनीताल में 
पच्चीस  वर्षों बाद 
शादी के दिन की कुछ तसवीरें हमने सम्भाल रखी हैं। इन 25 वर्षो में हमने साथ-साथ कई मुकाम तय किए। आरा, बोकारो, वेरावल(गुजरात), दमण, मुम्बई और अब दिल्ली में। हमने बहुत कुछ हासिल किया। कई खुशियां बटोरीं। दुख के पल भी आये। अभी बहुत कुछ रह गया है जिसे साथ मिलकर पाना है। कई सपने देखे हैं हमने। एक बेहतर समाज, एक बेहतर दुनिया का सपना...। नई दुनिया बनाने की जंग के हम भी राही हैं। चलते रहेंगे ... और जिंदगी के गीत गाते रहेंगे।