Wednesday, June 13, 2018

कॉ_अशोक सिंह व दीपिका जी के लिए : संतोष सहर



वे हम सबके साथी हैं - पुराने साथी। अगर आप कभी आरा के पूर्वी रेलवे गुमटी स्थित पार्टी (भाकपा-माले) जिला कार्यालय गये हों तो जरूर ही मुलाकात होगी। मंझोले कद के, पतली कद-काठी, घनी हल्की काली-सफेद बाल-दाढ़ी वाले। जबसे यह कार्यालय है उसी वक्त से उसके एक प्रमुख स्तम्भ। कॉ. रामनरेश राम 1995 से मृत्युपर्यन्त (अक्टूबर 2010) तक सहार क्षेत्र के विधायक रहे और अशोक जी उनके प्रतिनिधि।
इस ऑफिस में हमेशा ही चहल-पहल रहती है। कई-कई तरह की गतिविधि। कहते हैं न कि आदमी पगला जाये, वैसी। एक बार किसी गांव से एक फोन आया। अशोक जी उस वक्त कहीं व्यस्त थे। फोन मैंने उठाया, पूछा -कहिये साथी क्या बात है? वे कोई किसान थे। बोले - मेरी भैंस कल शाम से गायब हैँ। अभी तक कुछ पता नहीं चला। उन्हें खोजने में पार्टी की मदद चाहिए, सो, अशोक जी से बात करनी है। उनकी भैंस शाम तक मिल भी गयी जो भटक कर बगल के गांव में अपने ही रिश्तेदार के 'नाद' पर थी।

पिता की छांव से बुआ की गोद में

साल 1952 में चरपोखरी प्रखंड के कनई गांव में उनका जन्म हुआ। पिता रामनारायण राय जिन्हें 'कलक्टर राय' भी कहते थे और मां सोनझारी देवी की दूसरी संतान ठहरे। एक बहन बड़ी, दो भाई, दो बहनें छोटी। बचपन में ही 'अंग्रेज भारत छोड़ो आंदोलन' का जादू चल गया सो पिता कांग्रेसी हो गये। कांग्रेसी पिता ने ही सबसे प्रेम का पाठ पढ़ाया। स्कूल की पढ़ाई बगल के हँसवाडीह गांव से की। फुआ रूपझारो देवी से कुछ ज्यादा लगाव था। उनके पति जो सप्लाई के इंस्पेक्टर थे, दूसरी शादी कर अलग रहने लगे थे। आरा के पश्चिम टोला में अपने घर में वे अकेली पड़ गयी थीं। उनकी देखरेख और आगे की पढ़ाई के लिये अशोक जी को आरा आना पड़ा। जिला स्कूल से मैट्रिक और महाराजा कॉलेज बीएससी तक की पढ़ाई पूरी हुई।

दूर देश की कथा

1952 में ही चरपोखरी के कनई गांव से सैकड़ो मील दूर अवस्थित बांग्लादेश के एक छोटे से गांव में रह रहा एक परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था। मनोरंजन भट्टाचार्य जिन्होंने अभी-अभी अपना घर बसाया था और जिनके पूर्वज बरसों से उस गांव में रह रहे थे, आधी रात के अंधेरे में अपनी नवोढ़ा पत्नी के साथ गांव छोड़ने को विवश हुये। बांग्ला देश साम्प्रदायिक दंगों की आग में धू-धू कर जल रहा था। बांग्लादेश की सीमा पार कर लेने के बाद भी, भय इस कदर हावी था कि वे मीलों दूर दंगारह रहे मनोरंजन भट्टाचार्य अपनी पत्नी के साथ 
डेहरी ऑन सोन में पिछले कुछ वर्षों से रह रहे और वहां के सामाजिक जीवन का अटूट हिस्सा बन चुके 'सेन मेडिकल' के मालिक ने उन्हें शरण दी। मनोरंजन भट्टाचार्य ने एलएमपी की डिग्री हासिल की, मेडिकल प्रैक्टिशनर बन गये और आसपास के दर्जनों गांवों में घूम-घूम कर लोगों का ईलाज करने लगे। किसान लोगों के बीच बंगाली डॉक्टर बाबू 'ईश्वर का अवतार' साबित हुए। धनहरा गांव के लोगों ने पहले तो उन्हें गांव में ही डिस्पेंसरी खोलने को राजी किया और फिर एक बना-बनाया पुराना मकान खरीदवा कर वहीं पर बस जाने के लिये मना लिया।

दीपिका के उजाले से रौशन हुई दुनिया

सात बच्चों - छह बेटियां व एक बेटा - सात बच्चों के साथ परिवार इस नई जमीन पर भी मजबूती से जम गया। मनोरंजन भट्टाचार्य और रामनारायण राय के बीच पहले जान-पहचान बनी जो चलते-चलते गाढ़ी दोस्ती में बदल गयी। वे अपनी दो बड़ी बेटियों की शादी कर चुके थे। उनसे छोटी दो - दीपिका और नीलिमा ने भी हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली थी। अब आगे की पढ़ाई के लिये उन्हें आरा आना था। मित्र रामनारायण ने मनोरंजन की परेशानी दूर करने की खातिर आरा के डीन्स टैंक (नवादा मुहल्ला) के पास एक किराये का घर खोज दिया। बच्चियां को गांव-घर-परिवार से अलग, दूर आरा शहर में रहना था, सो मित्र रामनारायण ने बेटे अशोक को हिदायत दी कि वे उनकी देखरेख करें - पढ़ाई-लिखाई व खाने-रहने की जरूरतों का ख़याल रखते हुए रेगुलर वहां आया-जाया करें।
कॉ. अशोक बताते हैं - "मैं अक्सर घूमते-टहलते उनके यहां चला जाता। दीपिका तब महिला कॉलेज में इंटरमीडिएट की छात्र थीं। इसी आने-जाने के दौरान न जाने कब एक लगाव-सा पैदा हो गया। मैं अच्छे स्वभाव का मन जाता था। पढ़ने में भी रुचि रखता था और बीएससी कर रहा था। सभी बहनों, भाई और मां-पिता को भी मैं खूब भाता था। लेकिन, मेरे मन में एक नैतिक हिचक भी थी। यह परिवार अपने गांव-घर से विस्थापित होकर, हजार कष्टों को झेलते हुए, फिर से इस सामाजिक-आर्थिक हैसियत में पहुंचा था। मेरे जरिये आगे का कोई कदम उठाना फिर से उन्हें एक नई तबाही में न डाल दे। मेरा मन बीच मंझधार पड़ी नाव की तरह डांवाडोल था।"
"लेकिन, इस बीच दीपिका और मेरे बीच - एक दूसरे के प्रति - लगाव बढ़ता ही चला गया। हम प्रेम में पड़ गये। जी हाँ, अब हम एक दूसरे के बगैर नहीं रह नही सकते थे।"

दश्त मिलता है मियां इश्क़ में घर से पहले

"इन्हीं दिनों दीपिका के घर में उनकी शादी की बातें चलने लगीं। उनकी दो बड़ी बहनों की शादी कोलकाता में भद्र बंगाली परिवारों में हो चुकी थी। उनके लिए भी कई अच्छे परिवारों के सुयोग्य लड़के मिल रहे थे। मैं बीएससी की परीक्षा देने जा रहा था। एडमिट कार्ड आ चुका था। यह 1973 की बात है। मेरे पिता भी मेरी शादी तय करने वाले थे। अब देर करना संभव नहीं था। हम दोनों ने तय किया कि अब हमें शादी करके इसे जग जाहिर कर देना चाहिये। सो हम कोर्ट पहुंचे और एक-दूसरे का पति-पत्नी होने का सर्टिफिकेट हासिल कर लिया।"
"दीपिका जी के पिता, माँ, बहन-भाई हमारी शादी के पक्ष में थे। लेकिन, मेरे पिता, चाचा और गांव-समाज इसके खिलाफ उबल उठा। मेरे पिता हम दोनों को तरह-तरह से डराने लगे, जिसमें दोनों को जान से मार-मरवा देने की बात भी शामिल थी। संपत्ति से बेदखली और घर-बदर तो आम बात थी।"
"जब प्यार किया तो डरना क्या? फ़िल्म मुगले आज़म का यह गाना अब भी सबकी जुबान पर रहता था। लेकिन हमारी कहानी कुछ और रही। 'अनारकली' अपने पिता के घर धनहरा चली गयी और 'सलीम' ने मायानगरी मुंबई की राह ली - बागी तेवर लिये हुए, रोजगार की तलाश में।"

बहना! ओ बहना!

"बम्बई (मुंबई) में मेरी बड़ी बहन रहती थी। उनके पति वहां सेल टैक्स अधिकारी थे। मैं उसका शरणागत हुआ। मैं किसी और जगह कहाँ जा सकता था? बहन और बहनोई ने मेरा पूरा साथ दिया, ताकत दी और अपने प्रभाव से मुझे फायरस्टोन टायर कम्पनी में अप्रेंटिशशिप की नौकरी भी दिलवा दी। उन्होंने पिता पर भी दबाव बनाया जब तक वे नाराज रहे , मैं वहां रहा। लेकिन, मन बेचैन ही रहा। हां, इस बीच कुछ कमाई हो गयी। पिता ने दीपिका को अपनी बहू मान लिया। नैहर में रह रही मेरी पत्नी के लिए दशहरा के मौके पर साड़ी-कपड़े व फल-मिठाई भेजे। उसके कुछ दिनों बाद ही मैं मुम्बई से गांव-घर लौटा।"

पिता! हे पिता!

"मुझसे छोटी मेरी दो बहनें थी। अब, जब उनकी शादी करने का मौका आया तो अड़चनें खड़ी हो गयीं। मेरे पिता ने हमारी शादी को मान लिया। उन्होंने 22 मई 1974 को समारोहपूर्वक हमारी शादी का भोज भी आयोजित किया, लेकिन वे चिंतित रहने लगे। मैं अपने परिवार से विलग दिखूँ और मेरी बहनों की शादी में मेरा विवाह मुद्दा न बने, इसलिए मुझे अपने पिता से किसी भी तरह से सम्पर्क न रखना एक शर्त्त बन गया। 22 मई 1974 को जो शादी समारोह हुआ, वह भी उनकी गैर मौजूदगी में ही हुआ। उनके जिगरी दोस्त रामसूरत राय (राय मोटर सर्विस के मालिक) ने 'समधी' का रोल निभाया। में अब भी घर की संपत्ति से वंचित था।"

"हम नया क़रीना सीख गये"

"मुंबई से जो कुछ भी कमाया था, वह खत्म होने लगा था। 1975 में मेरा पहला बच्चा भी इस दुनिया में आ चुका था। मेरी माली हालत डांवाडोल थी। एक दिन पता चला कि मेरे पास महज 500 रुपये बच रहे। घर में युवा पत्नी और एक मासूम नन्ही जान।"/
"मैंने इन्हीं 500 रुपयों से एक धंधा शुरू किया - कबाड़ी का काम। दो मजदूर भी रख लिये। हम तीनों घर-घर घूमते हुए कबाड़ जुटाने लगे। राजेंद्रनगर मुहल्ले में एक सस्ता-सा मकान - दो कमरे, एक छोटा-सा आंगन किराये पर मिल गया। पत्नी-बच्चा साथ रहने लगे। दीपिका टीचर की ट्रेनिंग करने लगीं। 1977 तक मैं 'कबाड़ीवाला' बना रहा। इस बीच मेरे दूसरे बेटे ने जन्म लिया।"
"रामसूरत राय मेरे साथ बड़े ही उदार थे। वे हर वक्त मुझ पर निगाह रखते थे। देर-सबेर जब उनको मेरी हालत की खबर मिली तो खबर भेज मिलने को बुलाया। अगले ही दिन सुबह मैं उनसे मिलने पहुंचा। उन्होंने पहले तो मुझे इतने दिनों तक दूर-दूर रहने के लिये फटकार लगायी। फिर आरा और सहार के बीच चल रही अपनी बस के मैनेजर की नौकरी दे दी। महीने में तीन सौ रुपये का वेतन और बाद में मेरी ईमानदारी व मेहनत देख हर रोज 5 रुपये और। इस नौकरी से जब तीन हजार रुपये मेरे पास जमा हो गये तो मैंने उनसे कहकर यह नौकरी छोड़ दी।"
"1980-88 के बीच मैंने कई तरह के काम किये। एक दोस्त के पिता जो नहर विभाग में कार्यपालक अभियंता बनकर आये के कहने पर कुछ दिनों ठेकेदारी भी की। कारीसाथ में आये एक बौद्ध भिक्षुक से प्रभावित होकर उनके मठ के सचिव के रूप में भी काम किया। 1988 में दीपिका जी को शिक्षिका की नौकरी लग गई। 1989 में पिता भी नहीं रहे। बहनें भी शादीशुदा हो अपने परिवार में रम गईं। दोनों भाई बड़े होकर नौकरी में चले गए। उनका परिवार भी बाहर रहने लगा। सो, मैंने आश्रम से छुट्टी ली और गाँव चला गया। आरा आना-जाना पड़ता ही था। मेरा परिवार जो यहीं था।"

गांव जिसके बगल से एक नदी बहती है

"74 के छात्र आंदोलन में मैं अपने दोस्तों के साथ शरीक था। नाथूराम, रमाकांत ठाकुर, पवन आदि सभी मेरे मित्र थे। मैंने आंदोलन की भरपूर मदद की थी। हालांकि कभी जेल नहीं गया। छात्र जीवन में अपने कॉलेज में भी मेरी एक पहचान थी जो एक जाति विशेष की एक निजी सेना के एक चर्चित दबंग को मेरे द्वारा सबक सिखाने की वजह से बनी थी।"
"मेरे गांव के बगल में एक नदी बहती थी। इस नदी पर सिंचाई के लिये लोग एक अस्थायी बांध बनाते थे। सरकार इसे बार-बार कटवा देती थी। गांव जाते ही उन्होंने मिट्टी ढो-ढोकर स्थायी बांध बनाना शुरू कर दिया। लोग भी इस काम में उतरे। भारी तादाद में पुलिस आयी और आते ही गोली चलाने लगी। दो किसान - संजय यादव और एक अन्य मारे गये। इस गोलीकांड की पूरे बिहार में चर्चा फैल गयी। इन किसानों के सवाल पर कोई संघर्ष खड़ा कर सके - वैसी पार्टी या संगठन की तलाश शुरू की। एक पत्रकार मित्र के जरिये आइपीएफ नेताओं से सम्पर्क हुआ। प्रखंड व जिला स्तर पर जोरदार आंदोलन चला। शहीदों का स्मारक भी बना और स्थायी बांध भी। अब बांध काटने कोई नहीं आता।"
इसके बाद कॉ. अशोक पर आइपीएफ व भाकपा-माले का लाल रंग कुछ यूं चढ़ा कि उसी के होकर रह गए।

न टूटे, न झुके : एक अनथक योद्धा

रणवीर सेना के खूनी हमलों के दौर में कॉ. अशोक जी की सक्रियता, दृढ़ता व तेजी की बदौलत हमने जिला प्रशासन व सरकार को कई बार बैकफुट पर धकेलने में कामयाबी पायी। बथानी जनसंहार के बाद डीएम गोरेलाल यादव को हटना पड़ा, एसपी एस के सिंघल को कठघरे में खड़ा होना पड़ा और एक अन्य एसपी आर के मल्लिक को घुटने टेकने पड़े। बौखलाये एएसपी संजय लाटकर (पीरो) ने उन्हें झूठे आरोपों के तहत चोरी-चुपके आरा से गिरफ्तार करने व जेल में डाल देने के जरिये झुका देना चाहा। लेकिन, उस पर किया मुकदमा वापस नहीं हुआ। यह मुकदमा जघन्य पसौर पुलिस गोलीकांड के बाद जिसमें मुसहर जाति के दर्जन भर लोगों की हत्या कर दी गयी थी, उन्होंने कोर्ट में जाकर दर्ज करवाया था।

होठों पे तबस्सुम है, आंखों में उदासी है

"अमित आनन्द 13 जून को पैदा हुआ था, 1975 में। जैन कॉलेज से जब इंटर पास कर गया तो कहने लगा कि अब आगे नहीं पढूंगा, बिजिनेस करूँगा । मुंबई में जो मेरी बहन रहती थी उसका बेटा (मेरा भांजा) भी इसी रे का था। मैंने घर का धान बेचा था। चौदह हजार रुपये लेकर वह गया। साठ हजार रुपये लोन लेकर वहां रेडीमेड कपड़ों का कारोबार शुरू किया। 20 मशीनें थीं और 25-30 लड़कों का पूरा स्टाफ। वर्कशॉप एक मुस्लिम परिवार के मकान में था। उनकी बच्ची भी सेल्स का काम देखती थी। उन दोनों में प्रेम हुआ। बच्ची बहुत ही नेकदिल और समझदार थी। रेहाना नाम था उसका। अपने घरवालों से बोली कि हम अमित से ही शादी करेंगे। घरवालों को राजी भी कर लिया। हमें भी भला क्या ऐतराज होता? बहन की एक बच्ची की शादी एक 'एक्सपर्ट डिजाइनर' से है जो मुस्लिम समुदाय से हैं। सो, हमने अमित और रेहाना की शादी कर दी। वही, मुंबई में। इस बीच उसे बहरीन से एक अच्छा ऑफर मिला था। एक महीने के लिये वहां गया भी।"

दबे पांव आयी दुख की झंझा

"20 जनवरी को अचानक हम पर वज्रपात-सा हुआ। खबर आयी कि अमित मुंबई में किसी लोकल ट्रेन से गिर पड़ा है। उसका सिर बुरीतरह कुचल गया है। हम भागे-भागे वहां पहुंचे। जिस अस्पताल में वह भर्ती था, उसके तमाम सहयोगी वहां जमा थे। सब के सब दुख में निढाल। लेकिन, वह इस दुनिया से जा चुका था।
उसके दोस्तों ने हमें अपनी ओर से कुछ भी नहीं करने दिया। सारा खर्च मिल-जुलकर उठाया। उन्होनें वर्कशॉप को बेच दिया। सारी मशीनों के दाम समेत बाजार में बकाया पैसे वसूल कर हमारे हाथ में रख दिये। लेकिन, अमित जो हमारे प्यार की पहली निशानी था, वहीं छूट गया था।"


"अभिषेक हमारा छोटा बेटा है। उसके दो बच्चे हैं अंतरा आनंद (10 वर्ष) और विश्वरुप (6 वर्ष)। दीपिका जी कुछ साल पहले रिटायर हो चुकी हैं। एक छोटा-सा घर यहां खरीद लिया है। अब उसी में रहना होता है।"
आज भी अगर आप आरा के माले कार्यालय जायें तो कॉ. अशोक जी आपको भेंट जाएंगे। नीम के पेड़ की छांव में कुर्सी पर बैठे। हल्की मुस्कान के साथ आपका स्वागत करते। लेकिन आज उनकी गहरी उदास आंखे किसी को खोज रही होंगी। आज 13 जून जो है। उस अमित आनंद के जन्म का दिन जिसने प्यार की खातिर जिंदगी दांव चढ़ा दी।
समय हर ज़ख्म को भर देता है। लेकिन ऐसे ज़ख्म शायद कभी नहीं भरते। कामरेड, यह लड़ाई जब हम सबकी साझी लड़ाई है तो यह उदासी भी हम सबकी साझी उदासी है। हम सब आपके साथ खड़े हैं।
-संतोष सहर