Sunday, April 22, 2018

1857 की क्रांति और वीर कुंवर सिंह : अवधेश प्रधान

हमलोग छात्र जीवन में इतिहास में पढ़ते थे कि 1857 की क्रांति इसलिए असफल हुई क्योंकि इसमें कोई संगठन नहीं था और इसकी कोई योजना नहीं थी। मंगल पांडेय नाम के एकआदमी ने समय से पहले ही विद्रोह कर दिया इसलिए अंग्रेजों को मालूम हो गया, उन्होंने कुचल दिया। अलग-अलग तारीखों में बगावतें हुईं, जिससे लोगों ने समझा कि कोई संगठन या योजना नहीं थी। नए अध्ययनों के अनुसार ये अलग-अलग तारीखें ही बतलाती है कि इनमें एक योजना थी।

मेरठ चूंकि दिल्ली के सबसे करीब है इसलिए सबसे पहले वहां विद्रोह हुआ। उसके बाद पटना, आरा ने जुलाई तक समय लिया। कुंवर सिह हिचकिचाहट में या मजबूरी में इस लड़ाई में कूद पड़े, अंग्रेज इस बात को नहीं मानते। यद्यपि कुंवर सिंह काफी कर्ज में डूब गए थे। अंग्रेज मानते थे कि जमींदारी चलानी उन्हें नहीं आती थी, इसलिए उनकी नजर में वे भोले-भाले थे। लेकिन उनके तार बाकायदा पटना और भारत भर के विद्रोहियों से जुड़े हुए थे। उन्होंने पटना की यात्राएं भी की थीं। लगातार समाचारों का आदान-प्रदान और प्रचार का काम चल रहा था। सेठ जुल्फिकार मोहम्मद के परिवार से तीन पत्र बाद में उनके उत्तराधिकारियों ने दिए वे कुंवर सिंह के मुहर से दिए गए पत्र हैं। के.के. दत्त ने अपनी पुस्तक में उन्हें प्रामाणिक ठहराया है। सबसे प्रामाणिक किताब उन्हीं की है- ‘द लाइफ आॅफ कुंवर सिंह एंड अमर सिंह’। इस तरह के पत्र भी बतलाते हैं कि कुंवर सिंह के तार विद्रोहियों से जुड़े हुए थे। तभी तो दानापुर की बगावती फौजों ने दिल्ली के मुगल बादशाह का जयकारा करने के बाद अपना सेनापति घोषित किया कुंवर सिंह को। उसके बाद उन्होंने आरा की ओर कूच किया। अगर योजना नहीं थी तो क्या कोई एक दिन में दिल्ली के बादशाह का जयकारा लगाता है? रामविलास शर्मा ने 1957 में जो अपनी पुस्तक पूरी की, तब तक तमाम बुद्धिजीवी इसको फ्रीडम मूवमेंट मानने को ही तैयार नहीं थे। उस पुस्तक में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि सभी बगावती फौजों का मुगल बादशाह को केंद्रीय नेतृत्व के रूप में स्वीकार करना यह बतलाता है कि यह एक राष्ट्रीय योजना के तहत किया गया विद्रोह था। कोई इन योजनाओं की कमियों और तारीखों के अंतराल की समीक्षा कर सकता है, लेकिन यह तो तय है कि इस दौर में हर अंचल से कुछ बड़े नायक उभर कर सामने आए और वे छोटी जमीनों से उभरे। जो बड़ी-बड़ी रियासतें थीं, वे तो अंग्रेजों के साथ थीं।

अंग्रेजों ने भी भांपा कि 10 मई की बगावत के बाद कुंवर सिंह दम साधे तीन महीने तक प्रतीक्षा करते रहे। एक बड़े नेता की तरह वे इंतजार करते रहे थे समय का। इसके पीछे बड़े रणनीतिक योद्धा का दिमाग कर रहा था। थे वे निपढ़ निरक्षर, एकाउंटेन्सी नहीं जानते थे। बिजनेस करना नहीं जानते थे। लेकिन बाकी जो-जो वे जानते थे वह देखने लायक है। असल में 25 जुलाई को जब विद्रोह हुआ तो नदी में बाढ़ आई हुई थी और गरमी भी बेतहाशा थी। यह समय पूरी योजना के साथ चुना गया था। कुछ लोगों ने कहा है कि अंग्रेज बड़े अनुशासित थे, पढ़े-लिखे योद्धा थे, 150-150 साल की लड़ाई और कई देशों की लड़ाई का अनुभव उनके पास था! लेकिन कैप्टन डनवर मना करने के बावजूद चल पड़ा रात में ही। दूसरी ओर जगह-जगह बागीचों और बालू के ढूहों में बगावती फौजें तैनात की गई थीं। आंकड़े दिए हैं के.के. दत्त और दूसरे इतिहासकारों ने कि सुबह होने तक अंग्रेजी फौज का बहुत छोटा हिस्सा ही भागने में कामयाब हो पाया था। खुद कैप्टन डनवर मारा गया उसमें। बहरहाल, देखें तो लड़ाई बराबरी की नहीं थी। क्योंकि अंग्रेजों के पास तोपें थीं। वैसे जगदीशपुर में प्रमाण मिले हैं कि कुंवर सिंह ने कुछ छोटे कारखाने कायम किए थे हथियार बनाने के लिए। 

एक बहुत भद्दा आरोप लगता है कि कुंवर सिंह के साथ सिर्फ राजपूत थे। पोस्टमार्डनिज्म के असर में आजकल स्वाधीनता संग्राम की तरह-तरह की व्याख्याएं हो रही हैं, खोज-खोज कर जातियां निकाली जा रही हैं। कुंवर सिंह राजपूत समुदाय में पैदा हुए थे, इसलिए यह आरोप लगाना कि उनके साथ केवल राजपूत थे, इतिहास के साथ अन्याय है। उन्होंने नेताओं का चयन जिस तरह किया उससे पता चलता है कि उनके भीतर एक राष्ट्रीय और सांगठनिक प्रतिभा काम कर रही थी। मैकू मल्लाह जल सेना के प्रधान थे और इसीलिए अंगे्रेजों ने उन्हें बाद में मौत के घाट उतार दिया। उन्होंने इब्राहिम खान को बिहिया डिवीजन, मैंगर सिंह को गहमर तथा रंजीत यादव को चौंगाई डिवीजन का प्रधान बनाया था। जिस तरह उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता और तमाम दलित-पिछड़े समुदायों के अपने सहयोगियों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष किया, वह गौरतलब है। उनकी सांगठनिक प्रतिभा की तुलना सिर्फ अकबर से की जा सकती है। बेशक अंग्रेजों के पास तोपखाना था, आधुनिक हथियार था, बहुत बड़ी ताकत थी और लगातार कुमुक पहुंच रही थी, लेकिन कुंवर सिंह ने भी जबर्दस्त तैयारी की थी। उन्होंने अपने फौज को खिलाने के लिए 6 माह की रसद जमा कर रखी थी, जिसे बाद में जगदीशपुर छोड़ते वक्त उन्होंने जला दिया। 

जगदीशपुर छोड़ने के बाद उनको अपनी रणनीतिक प्रतिभा दिखाने का असली मौका मिला। कुंवर सिंह जब जगदीशपुर से बाहर निकले तो पूरे भारत का नेता बनकर निकले। उन्होंने बड़ी योजना पर काम करना शुरू किया। सासाराम, जमानिया, गाजीपुर और मिर्जापुर की पहाड़ियों से होते हुए वे रीवां पहुंचे। रीवां में उनकी रिश्तेदारी थी। मगर उनके रिश्तेदार ने उनकी मदद नहीं की। रीवां से उन्होंने बांदा की ओर रुख किया। वहां एक बड़ी योजना बनी कि तात्यां टोपे, नाना साहब और कुंवर सिंह की सम्मिलित शक्ति अंग्रेजों पर हमला करेंगी। कुंवर सिंह के फैजाबाद, अयोध्या जाने के भी प्रमाण मिलते हैं। जिधर-जिधर से उनकी फौज गुजरी उधर-उधर बगावत की लहर फैलती गई। बुंदेलखंड के नागौर, जबलपुर, सागर आदि इलाकों पर भी इस ऐतिहासिक अभियान का प्रभाव पड़ा। खासकर लोकगीतों में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, अतरौलिया और मंदौरी की लड़ाई का जबर्दस्त जिक्र मिलता है। आजमगढ़ की लड़ाई का क्या जज्बा था, इसका अनुमान इससे मिल सकता है कि एक खास चौकी पर जब अंग्रेजों ने कब्जा किया तो पाया कि घर के अंदर तीन-तीन फीट तक लाशों का अंबार लगा है यानी हिंदुस्तानी सिपाहियों ने तोपों के गोलों के आगे उड़ जाना स्वीकार किया, लेकिन भागे नहीं। आजमगढ़ पर बाकायदा उन्होंने विजय हासिल की और कुछ दिन तक शासन किया। वहां हरेकृष्ण सिंह के नेतृत्व मे कुछ टुकड़ियों को छोड़कर वे बलिया की सीमा पर नगरा पहुंचे और फिर नगरा से सिकंदरपुर होते हुए अपने ननिहाल सहतवार पहुंचे। एकाएक दोआबा का वह क्षेत्र बगावती ज्वार की चपेट में आ गया। स्थानीय ताकतें किस तरह संगठित हुईं इसकी मिसाल सहतवार की एक घटना से मिलती है। वहां अरहर के खेत में छिपे किसानों ने, जिन्हें किसी छापामार लड़ाई का अनुभव नहीं था, न कोई प्रशिक्षण था, भाला-गड़ासा जैसे देहाती हथियारों से अंग्रेजों की एक पूरी टुकड़ी को खत्म कर दिया। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि अगर आजमगढ़ से सीधे उन्होंने बनारस पर हमला बोल दिया होता, तो पूरा पूर्वांचल उनके कब्जे में होता और यह बहुत बड़ी घटना होती। लेकिन वे फिर से जगदीशपुर को अपने कब्जे में लेना चाहते थे, शायद लोगों को यह संदेश देना चाहते थे कि हम हारे नहीं हैं। बहरहाल, जिस तरह अंग्रेजी राज के नाक के नीचे से इतना लंबा ऐतिहासिक अभियान चलाते और अपनी फौजों को सुरक्षित रखते हुए वे वापस आए वह मामूली रणनीतिक प्रतिभा का कमाल नहीं है। बगैर अपार जनसमर्थन के यह संभव नहीं था। 

1857 की लड़ाई में एक से बढ़कर एक योद्धा थे, लेकिन इतना लंबा मार्च किसी ने नहीं किया। जब कुंवर सिंह ने देखा कि चारों ओर घेराबंदी है, तो अफवाह उड़ा दिया कि वे बलिया में हाथियों के जरिए गंगा पार करेंगे। अंग्रेजों ने अपनी ज्यादातर ताकत बलिया पर लगा दी और रातोंरात शिवपुर घाट से मल्लाहों के सहयोग से नावों के जरिए उनकी पूरी सेना पार हो गई। अंग्रेज आखिर में पहुंचे और उन पर हमला किया जिसमें वे जख्मी हो गए, अपने बाजू को काटना पड़ा। लेकिन उनकी फौज ने ली ग्रांट को जबर्दस्त शिकस्त देते हुए दुबारा 23 अप्रैल 1858 को जगदीशपुर पर अपना विजय पताका फहरा दिया। ली ग्रांट इस लड़ाई में मारा गया। अंग्रेजों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। कुंवर सिंह तो 26 अप्रैल तक ही जीवित रह पाए, मगर उसके बाद भी अमर सिंह के नेतृत्व में लड़ाई जारी रही। मार्क्स और एंगेल्स ने कुँवर सिंह और अमर सिंह की छापामार लड़ाइयों पर बहुत लंबी-लंबी टिप्पणियां लिखी हैं। अमर सिंह की छापामार लड़ाइयों से परेशान होकर अंग्रेजों ने आरा से जगदीशपुर तक का सारा जंगल कटवा दिया। अंग्रेज अमर सिंह को बेहद खतरनाक समझते थे। छापामार लड़ाइयों का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि जिस लुगार्ड के हाथ में नया नेतृत्व आया था, उसने इस्तीफा दे दिया। साल भर की लड़ाई में अंग्रेजों के दो सेनानायक मारे गए और एक ने इस्तीफा दे दिया। हमारे योद्धा अंत-अंत तक डटे रहे। वे फांसी पर झूल गए या मारे गए, पर पीछे नहीं हटे।

जो लोग कहते हैं कि लड़ाई योजनाबद्ध नहीं थी या विद्रोही पिछड़ी चेतना के लोग थे या ये अनुशासनहीन भीड़ के नेता थे या कि इनमें कोई राजनीतिक प्रतिभा नहीं थी, उनकी सारी व्याख्याएं ओछी साबित होती हैं। वास्तव में सारी सीमाओं के बावजूद एक सीमित शक्ति के भरोसे एक राष्ट्रीय नेतृत्व कैसे विकसित होता है, इसकी व्याख्या हम जरूर कर सकते हैं। मुख्य बात यह है कि कुंवर सिंह और अमर सिंह केवल जगदीशपुर, केवल आरा या बिहार के नहीं थे। वे पूरे भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नायकों में हैं। उन्हें इसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। 

1857 असफल हो गया। लेकिन वह एक ‘भव्य असफलता’ है। इस असफलता में एक ट्रैजिक सौंदर्य है, जो बराबर प्रेरणा देता है। इस प्रेरणा में ही विजय निहित है। अंग्रेज जो लोकतंत्र और न्याय के प्रहरी बनते हैं जितना क्रूर व्यवहार कैदियों और क्रांतिकारियों के साथ उन्होंने किया, उसकी इतिहास में कोई मिसाल नहीं मिलती। एक-एक पेड़ उनके अत्याचार का साक्षी है, जिन पर लोगों को फांसी दी गई। एक नया भारत जो उभर रहा था अंग्रेजों ने उसे पीछे धकेलने का काम किया। सामंतवाद जो खत्म हो रहा था, उसे हरा-भरा करने और उसकी जड़ों में पानी देने का काम अंग्रेजी राज ने किया। उसने हिंदू-मुसलमानों को एक नहीं रहने दिया। उसके बाद बड़े पैमाने पर दंगे हुए। 1857 के बाद जो साहित्य आया, उसमें क्रांति की अनुगूंज इसलिए कम मिलती है कि मध्यवर्ग अंग्रेजों से प्रतिरोध के लिए तैयार नहीं था। लोकगीत ही उस क्रांति के सच्चे दर्पण हैं। इन लोकगीतों में वीर कुंवर सिंह और अमर सिंह की गाथा को बड़े प्यार से जगह दी गई है। 

(1857 की 150 वीं वर्षगांठ और 23 अप्रैल 2007 को विजयोत्सव के मौके पर वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा में दिए गए व्याख्यान का संक्षिप्त और संपादित अंश)