Thursday, December 17, 2020

काॅ. विनोद मिश्र और बिहार के विकास का सवाल : सुधीर सुमन

(यह लेख काॅ. विनोद मिश्र के निधन के एक वर्ष बाद 1999 में मैंने ‘विनोद मिश्र और बिहार के विकास का सवाल’ शीर्षक से लिखा था, जो कहीं प्रकाशित नहीं हुआ था।)

एक समृद्ध, आत्मनिर्भर और प्रगतिशील राष्ट्र का सपना देखनेवाले प्रखर वामपंथी चिंतक और भाकपा-माले के पूर्व महासचिव काॅ. विनोद मिश्र का नाम बिहारवासियों के लिए सर्वाधिक परिचित रहा है। बिहार उनकी कर्मभूमि थी। उनके सपनों के बीज ऐतिहासिक परिवर्तनों की अगुआई करने वाले इस बिहार में ही फले-फूले। बिहार उनके लिए क्रांतिकारी विचारों का प्रयोगशाला रहा, जिसके निष्कर्षों के आधार पर उन्होंने अनेक बार भारतीय राजनीति के वर्तमान और भविष्य का सटीक विश्लेषण किया था। समाजवाद के रूसी माॅडल के ध्वस्त हो जाने के बाद जिस दौर में वामपंथ के अप्रासंगिक हो जाने की बयानबाजी जोर-शोर से जारी थी उसी दौर में उन्होंने वामपंथी विकल्प के प्रति आस्था जगाये रखी। उनकी पार्टी छोटी थी, पर उसकी मजबूती और विकासमान प्रवृत्तियों के कारण उसे तमाम पार्टियों ने अपने लिए खतरा समझा। उसे खत्म करने की हजार कोशिशें हुईं, परंतु कार्यकर्ताओं और समर्थकों के सामूहिक जनसंहार, पुलिस प्रताड़ना और नेताओं की हत्या के बावजूद उसका वजूद कायम है। उस मजबूत वजूद की वजह को बताते हुए काॅ. विनोद मिश्र ने कहा था- हम जिंदा रहेंगे क्योंकि हमारी ताकत का बुनियादी स्रोत बुनियादी जनता है और क्रूर से क्रूर तानाशाह भी जनता को खत्म नहीं कर सकता। उन्हें विश्वास था कि उनके सपने इसलिए भी जिंदा रहेंगे, क्योंकि बिहार के किसानों की लड़ाई भारत की दूसरी आजादी की लड़ाई से जुड़ गई है।
काॅ. विनोद मिश्र आज नहीं हैं, पर बिहार को बदलते हुए देश को बदलने की उनकी उम्मीद जिंदा है। विनोद मिश्र मानते हैं कि बिहार की मूल समस्या भूमि सुधार की है। जो भूमि सुधार की जरूरत को स्वीकार नहीं करते उन्हें वे यथास्थितिवादी ताकतों की संज्ञा देते हैं। उनके अनुसार लंबे कांग्रेसी शासन के बाद जो सरकार आई, पिछड़ी जातियों के कुछ कुलक हिस्सों की ही प्रतिनिधि थीं। अगड़ी और पिछड़ी जाति के ताकतवर हिस्सों का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनैतिक ताकतों के बीच भूमि सुधार न होने देने के विषय में एकता बन गई। विनोद मिश्र इसे बिहार के लिए दुर्भाग्यपूर्ण एकता मानते थे। बिहार का भला चाहने वाले देश के प्रमुख बुद्धिजीवियों का हवाला देते हुए वे हमेशा यह कहते रहे कि बिहार में भूमि सुधार के अधूरे काम को पूरा करना ही यहां के विकास की कुंजी है।
‘बिहार में अविकास का राजनैतिक अर्थशास्त्र’ नामक सेमिनार में बोलते हुए विनोद मिश्र ने कहा था- ‘‘ भूमि सुधार जरूरी है। उद्यमी छोटे फार्मरों को भूमि प्रदान करने के लिए भूमि का आमूल पुनर्वितरण आवश्यक है। छोटे और सीमांत किसानों के छोटे भूखंडों को आर्थिक रूप् से लाभजनक बनाने के लिए उन्हें संस्थागत समर्थन देना होगा। आमूल भूमि सुधार लागू करने के लिए राजनीतिक वर्ग को किसी भी हद तक जाने को तैयार होना होगा। यहां तक कि समूची भूमि के राष्ट्रीयकरण और लीज के आधार पर उसे छोटे फार्मरों के बीच पुनर्वितरित करने की हद तक। उतना ही जरूरी यह है कि छोटे या बड़े सभी किस्म के फार्मरों के यहां काम करनेवाले खेत मजदूरों को न्यूनतम वेतन मिलने की गारंटी की जाए।’’
उन्होंने सुझाव दिया था कि ग्रामीण और अर्द्धग्रामीण क्षेत्र में होने वाली बचत को राज्य सरकार की एजेंसियों के जरिए जमा किया जाना चाहिए और उसे फार्मों में निवेश करने तथा आधारभूत ढांचे के निर्माण व सामाजिक सेवा क्षेत्र का सुधार करने में नियोजित करना चाहिए। कम ब्याज दर पर ऋण देने, सिंचाई एवं जमीन की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए दुरुस्त तंत्र तथा वैज्ञानिक ढंग से खेती को बढ़ावा देने पर उन्होंने जोर दिया था। कृषि के विविध रूप- पाॅल्ट्री जैसी चीजों के विकास के साथ कृषि से जुड़े परंपरागत उद्योगों- जूट मिल, चीनी मिल तथा हैंडलूम को पुनर्जीवित करना वे जरूरी समझते थे।
विनोद मिश्र का मानना था कि न्यायालय भी भूमि सुधार में बाधक बने हुए हैं। वहां तमाम केसों को फंसा कर रखा गया है। उनका कहना था कि विशेष लैंड-ट्रिब्यूनल बनाकर भूमि-सुधार से संबंधित केसों को हाईकोर्ट से निकालकर वहां जल्दी से निपटारा किया जाए। इसके साथ ही बीमार उद्योगों में सुधार तथा परजीवी आर्थिक संस्कृति में बदलाव को भी वे जरूरी समझते थे। उन्होंने इस प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त की थी कि यहां किसी घरेलू पूंजी का निर्माण नहीं हो रहा है, बल्कि यहां-वहां से आने वाले अनुदानों तथा कर्मचारियों प्राविडेंड फंड आदि से सरकारें चलती हैं।
राजनीति के अपराधीकरण के लेकर बिहार बराबर चर्चा में रहा है। विनोद मिश्र की दृष्टि में यह आर्थिक प्रक्रिया के अपराधीकरण का ही प्रतिफलन है। उन्होंने कहा था- ‘‘उत्पादन की स्वाभाविक प्रक्रिया के जरिये धन इकट्ठा किया जाए, पूंजी इकट्ठा किया जाए, उसका विनियोग हो- यह प्रक्रिया यहां नहीं दिखती है, बल्कि यहां लूट-खसोट, तमाम किस्म की रंगदारी, सरकारी खजाने की लूट वगैरह के जरिये आर्थिक समृद्धि हासिल की जाती है।’’ भोजपुर के एक कुख्यात सामंत का हवाला देते हुए उन्होंने स्पष्ट किया था कि आर्थिक लूट में संलग्न राजनीतिक वर्ग किस तरह बड़े भूस्वामियों, कुलकों, नवधनाढ़्यों तथा व्यावसायिों का हित साधन करता है। बड़े भूस्वामियों, गुंडागिरोहों, काले धन पर आधारित व्यवसायों के आगे चाटुकार की शैली में खड़ा यह राजनीतिक नेतृत्व उसी की मर्जी के अनुसार चलता है। विनोद मिश्र इस तरह के राजनेताओं को भी जनता के ऊपर एक बोझ मानते हैं। उनका एक बहुचर्चित कथन है- ‘‘जमींदारों के, कुलकों के, तमाम किस्म के अपराधियों के पहाड़ बिहार की जनता पर पहले से लदे हुए हैं। और अब राजनीतिज्ञों का पूरा का पूरा वर्ग, एक पहाड़, बिहार की जनता पर बोझ की तरह लद गया है। यहां आर्थिक प्रक्रिया के विकास की बजाय सारा झगड़ा इस बात को लेकर है कि सरकारी नौकरियों किसकों ज्यादा मिलेंगी, कौन उन्हें ज्यादा हड़पेगा- यहां सारी राजनीति इसी के इर्द-गिर्द घूमती है। और इसका कारण सिर्फ यह है कि सरकारी नौकरियों में हिस्सा पाकर लूट-खसोट का बाजार और गर्म बनाया जाए।’’ बिहार की मुक्ति के लिए विनोद मिश्र लुटेरे राजनीतिज्ञों के इस पहाड़ के खिलाफ संघर्ष जरूरी समझते थे।
अपनी पार्टी भाकपा-माले को अलोकतांत्रिक और हिंसक बताने का विनोद मिश्र ने सदैव विरोध किया। उनके अनुसार जिनकी राजनीति का लक्ष्य राजनेताओं, गुंडागिरोहों, मुट्ठी भर जातीय बाहुबलियों, दलालों तथा नौकरशाहों का हितसाधन है, वही पार्टियां बिहार में हिंसा के लिए जिम्मेवार हैं। हिंसा के उग्रतम रूप का सामान्य प्रक्रिया बन जाना उन्हें हमेशा बेचैन करता रहा था। वह मानते थे कि जनता के प्रतिरोध को सशक्त बनाके तथा लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दुरुस्त करके ही इस हिंसा को रोका जा सकता है। पंचायत चुनाव सहित तमाम किस्म की लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करना उनके लिए एक प्रमुख एजेंडा रहा।
बिहार में सत्ता की चापलूसी तथा दलाली की बढ़ती संस्कृति को विनोद मिश्र ने हमेशा आड़े हाथों लिया। उनकी कल्पना थी कि बौद्धिक जगत की ऊर्जा सच्चे लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत बनाने में लगे। चैतरफा शैक्षणिक पतन के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन के लिए भी वे हमेशा प्रेरित करते रहे। वे चरवाहा विद्यालय की जगह बिहार में कृषि टेªेनिंग संस्थान खोलने को ज्यादा जरूरी समझते थे। वे चाहते थे कि बिहार रामलखन सिंह यादव या तपेश्वर सिंह जैसों के नाम पर चलने वाले निजी और गैरजरूरी महाविद्यालयों को तकनीकी संस्थानों में बदल दिया जाए, जिनमें तकनीकी शिक्षाएं दी जाएं। विभिन्न जातीय गुटों के चंगुल से शिक्षा को आजाद करना और उसे पूरी तरह सेकुलर बनाना उन्हें जरूरी लगता था।
विनोद मिश्र महिला आरक्षण के प्रबल पक्षधर थे। उनके अनुसार ‘‘बिहार के पिछड़ेपन को तोड़ने में अगर कोई गति पैदा करनी है, तो ये जरूरी है कि महिलाओं को समाज विकास के या अन्य कामों में आगे बढ़ाया जाए।’’ औरत की आजाद पहचान के संघर्ष में बाधक तमाम पुरानी मान्यताओं, तर्कहीन अवैज्ञानिक धार्मिक रीति-रिवाजों से उनका तीखा विरोध था। बिहार की महिलाओं के ऊपर पुरानी धार्मिक सामंती मूल्यों का ज्यादा बोझ रहा है। इनसे मुक्ति के हर संघर्ष का विनोद मिश्र ने समर्थन किया था।