Thursday, December 17, 2020

काॅ. विनोद मिश्र और बिहार के विकास का सवाल : सुधीर सुमन

(यह लेख काॅ. विनोद मिश्र के निधन के एक वर्ष बाद 1999 में मैंने ‘विनोद मिश्र और बिहार के विकास का सवाल’ शीर्षक से लिखा था, जो कहीं प्रकाशित नहीं हुआ था।)

एक समृद्ध, आत्मनिर्भर और प्रगतिशील राष्ट्र का सपना देखनेवाले प्रखर वामपंथी चिंतक और भाकपा-माले के पूर्व महासचिव काॅ. विनोद मिश्र का नाम बिहारवासियों के लिए सर्वाधिक परिचित रहा है। बिहार उनकी कर्मभूमि थी। उनके सपनों के बीज ऐतिहासिक परिवर्तनों की अगुआई करने वाले इस बिहार में ही फले-फूले। बिहार उनके लिए क्रांतिकारी विचारों का प्रयोगशाला रहा, जिसके निष्कर्षों के आधार पर उन्होंने अनेक बार भारतीय राजनीति के वर्तमान और भविष्य का सटीक विश्लेषण किया था। समाजवाद के रूसी माॅडल के ध्वस्त हो जाने के बाद जिस दौर में वामपंथ के अप्रासंगिक हो जाने की बयानबाजी जोर-शोर से जारी थी उसी दौर में उन्होंने वामपंथी विकल्प के प्रति आस्था जगाये रखी। उनकी पार्टी छोटी थी, पर उसकी मजबूती और विकासमान प्रवृत्तियों के कारण उसे तमाम पार्टियों ने अपने लिए खतरा समझा। उसे खत्म करने की हजार कोशिशें हुईं, परंतु कार्यकर्ताओं और समर्थकों के सामूहिक जनसंहार, पुलिस प्रताड़ना और नेताओं की हत्या के बावजूद उसका वजूद कायम है। उस मजबूत वजूद की वजह को बताते हुए काॅ. विनोद मिश्र ने कहा था- हम जिंदा रहेंगे क्योंकि हमारी ताकत का बुनियादी स्रोत बुनियादी जनता है और क्रूर से क्रूर तानाशाह भी जनता को खत्म नहीं कर सकता। उन्हें विश्वास था कि उनके सपने इसलिए भी जिंदा रहेंगे, क्योंकि बिहार के किसानों की लड़ाई भारत की दूसरी आजादी की लड़ाई से जुड़ गई है।
काॅ. विनोद मिश्र आज नहीं हैं, पर बिहार को बदलते हुए देश को बदलने की उनकी उम्मीद जिंदा है। विनोद मिश्र मानते हैं कि बिहार की मूल समस्या भूमि सुधार की है। जो भूमि सुधार की जरूरत को स्वीकार नहीं करते उन्हें वे यथास्थितिवादी ताकतों की संज्ञा देते हैं। उनके अनुसार लंबे कांग्रेसी शासन के बाद जो सरकार आई, पिछड़ी जातियों के कुछ कुलक हिस्सों की ही प्रतिनिधि थीं। अगड़ी और पिछड़ी जाति के ताकतवर हिस्सों का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनैतिक ताकतों के बीच भूमि सुधार न होने देने के विषय में एकता बन गई। विनोद मिश्र इसे बिहार के लिए दुर्भाग्यपूर्ण एकता मानते थे। बिहार का भला चाहने वाले देश के प्रमुख बुद्धिजीवियों का हवाला देते हुए वे हमेशा यह कहते रहे कि बिहार में भूमि सुधार के अधूरे काम को पूरा करना ही यहां के विकास की कुंजी है।
‘बिहार में अविकास का राजनैतिक अर्थशास्त्र’ नामक सेमिनार में बोलते हुए विनोद मिश्र ने कहा था- ‘‘ भूमि सुधार जरूरी है। उद्यमी छोटे फार्मरों को भूमि प्रदान करने के लिए भूमि का आमूल पुनर्वितरण आवश्यक है। छोटे और सीमांत किसानों के छोटे भूखंडों को आर्थिक रूप् से लाभजनक बनाने के लिए उन्हें संस्थागत समर्थन देना होगा। आमूल भूमि सुधार लागू करने के लिए राजनीतिक वर्ग को किसी भी हद तक जाने को तैयार होना होगा। यहां तक कि समूची भूमि के राष्ट्रीयकरण और लीज के आधार पर उसे छोटे फार्मरों के बीच पुनर्वितरित करने की हद तक। उतना ही जरूरी यह है कि छोटे या बड़े सभी किस्म के फार्मरों के यहां काम करनेवाले खेत मजदूरों को न्यूनतम वेतन मिलने की गारंटी की जाए।’’
उन्होंने सुझाव दिया था कि ग्रामीण और अर्द्धग्रामीण क्षेत्र में होने वाली बचत को राज्य सरकार की एजेंसियों के जरिए जमा किया जाना चाहिए और उसे फार्मों में निवेश करने तथा आधारभूत ढांचे के निर्माण व सामाजिक सेवा क्षेत्र का सुधार करने में नियोजित करना चाहिए। कम ब्याज दर पर ऋण देने, सिंचाई एवं जमीन की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए दुरुस्त तंत्र तथा वैज्ञानिक ढंग से खेती को बढ़ावा देने पर उन्होंने जोर दिया था। कृषि के विविध रूप- पाॅल्ट्री जैसी चीजों के विकास के साथ कृषि से जुड़े परंपरागत उद्योगों- जूट मिल, चीनी मिल तथा हैंडलूम को पुनर्जीवित करना वे जरूरी समझते थे।
विनोद मिश्र का मानना था कि न्यायालय भी भूमि सुधार में बाधक बने हुए हैं। वहां तमाम केसों को फंसा कर रखा गया है। उनका कहना था कि विशेष लैंड-ट्रिब्यूनल बनाकर भूमि-सुधार से संबंधित केसों को हाईकोर्ट से निकालकर वहां जल्दी से निपटारा किया जाए। इसके साथ ही बीमार उद्योगों में सुधार तथा परजीवी आर्थिक संस्कृति में बदलाव को भी वे जरूरी समझते थे। उन्होंने इस प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त की थी कि यहां किसी घरेलू पूंजी का निर्माण नहीं हो रहा है, बल्कि यहां-वहां से आने वाले अनुदानों तथा कर्मचारियों प्राविडेंड फंड आदि से सरकारें चलती हैं।
राजनीति के अपराधीकरण के लेकर बिहार बराबर चर्चा में रहा है। विनोद मिश्र की दृष्टि में यह आर्थिक प्रक्रिया के अपराधीकरण का ही प्रतिफलन है। उन्होंने कहा था- ‘‘उत्पादन की स्वाभाविक प्रक्रिया के जरिये धन इकट्ठा किया जाए, पूंजी इकट्ठा किया जाए, उसका विनियोग हो- यह प्रक्रिया यहां नहीं दिखती है, बल्कि यहां लूट-खसोट, तमाम किस्म की रंगदारी, सरकारी खजाने की लूट वगैरह के जरिये आर्थिक समृद्धि हासिल की जाती है।’’ भोजपुर के एक कुख्यात सामंत का हवाला देते हुए उन्होंने स्पष्ट किया था कि आर्थिक लूट में संलग्न राजनीतिक वर्ग किस तरह बड़े भूस्वामियों, कुलकों, नवधनाढ़्यों तथा व्यावसायिों का हित साधन करता है। बड़े भूस्वामियों, गुंडागिरोहों, काले धन पर आधारित व्यवसायों के आगे चाटुकार की शैली में खड़ा यह राजनीतिक नेतृत्व उसी की मर्जी के अनुसार चलता है। विनोद मिश्र इस तरह के राजनेताओं को भी जनता के ऊपर एक बोझ मानते हैं। उनका एक बहुचर्चित कथन है- ‘‘जमींदारों के, कुलकों के, तमाम किस्म के अपराधियों के पहाड़ बिहार की जनता पर पहले से लदे हुए हैं। और अब राजनीतिज्ञों का पूरा का पूरा वर्ग, एक पहाड़, बिहार की जनता पर बोझ की तरह लद गया है। यहां आर्थिक प्रक्रिया के विकास की बजाय सारा झगड़ा इस बात को लेकर है कि सरकारी नौकरियों किसकों ज्यादा मिलेंगी, कौन उन्हें ज्यादा हड़पेगा- यहां सारी राजनीति इसी के इर्द-गिर्द घूमती है। और इसका कारण सिर्फ यह है कि सरकारी नौकरियों में हिस्सा पाकर लूट-खसोट का बाजार और गर्म बनाया जाए।’’ बिहार की मुक्ति के लिए विनोद मिश्र लुटेरे राजनीतिज्ञों के इस पहाड़ के खिलाफ संघर्ष जरूरी समझते थे।
अपनी पार्टी भाकपा-माले को अलोकतांत्रिक और हिंसक बताने का विनोद मिश्र ने सदैव विरोध किया। उनके अनुसार जिनकी राजनीति का लक्ष्य राजनेताओं, गुंडागिरोहों, मुट्ठी भर जातीय बाहुबलियों, दलालों तथा नौकरशाहों का हितसाधन है, वही पार्टियां बिहार में हिंसा के लिए जिम्मेवार हैं। हिंसा के उग्रतम रूप का सामान्य प्रक्रिया बन जाना उन्हें हमेशा बेचैन करता रहा था। वह मानते थे कि जनता के प्रतिरोध को सशक्त बनाके तथा लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दुरुस्त करके ही इस हिंसा को रोका जा सकता है। पंचायत चुनाव सहित तमाम किस्म की लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करना उनके लिए एक प्रमुख एजेंडा रहा।
बिहार में सत्ता की चापलूसी तथा दलाली की बढ़ती संस्कृति को विनोद मिश्र ने हमेशा आड़े हाथों लिया। उनकी कल्पना थी कि बौद्धिक जगत की ऊर्जा सच्चे लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत बनाने में लगे। चैतरफा शैक्षणिक पतन के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन के लिए भी वे हमेशा प्रेरित करते रहे। वे चरवाहा विद्यालय की जगह बिहार में कृषि टेªेनिंग संस्थान खोलने को ज्यादा जरूरी समझते थे। वे चाहते थे कि बिहार रामलखन सिंह यादव या तपेश्वर सिंह जैसों के नाम पर चलने वाले निजी और गैरजरूरी महाविद्यालयों को तकनीकी संस्थानों में बदल दिया जाए, जिनमें तकनीकी शिक्षाएं दी जाएं। विभिन्न जातीय गुटों के चंगुल से शिक्षा को आजाद करना और उसे पूरी तरह सेकुलर बनाना उन्हें जरूरी लगता था।
विनोद मिश्र महिला आरक्षण के प्रबल पक्षधर थे। उनके अनुसार ‘‘बिहार के पिछड़ेपन को तोड़ने में अगर कोई गति पैदा करनी है, तो ये जरूरी है कि महिलाओं को समाज विकास के या अन्य कामों में आगे बढ़ाया जाए।’’ औरत की आजाद पहचान के संघर्ष में बाधक तमाम पुरानी मान्यताओं, तर्कहीन अवैज्ञानिक धार्मिक रीति-रिवाजों से उनका तीखा विरोध था। बिहार की महिलाओं के ऊपर पुरानी धार्मिक सामंती मूल्यों का ज्यादा बोझ रहा है। इनसे मुक्ति के हर संघर्ष का विनोद मिश्र ने समर्थन किया था।

Friday, November 9, 2018

शहीद कॉ. मंजू देवी की याद : संतोष सहर

वो सूरतें इलाही किस मुल्क बसतियाँ हैं
अब  देखने को जिन केआंखें तरसतियाँ हैं

(ऑटो चालक ने मुझे जिस जगह उतारा वह पुनपुन नदी पर बना एक पुल था। का किनारा था। पूछने पर पता चला यह पुनपुन नदी है। पुल के पहले व बाद में दो-चार गुमटियां और सामुदायिक भवन जिस पर कॉ. मंजू देवी के नाम का शिलापट्ट लगा हुआ है। पुल के पार बाएं उतरिये तो धरनई गांव। नीचे से होकर बहती पुनपुन नदी, जिसमें दर्जन भर बच्चे छपाछप नहा रहे होते हैं।
पूछते-पाछते घर तक पहुंचा तो दो किशोर वय बच्चियां मिलीं। फिर कॉ. मंजू भी दिखीं कमरे की दीवारों पर टंगी अपनी तस्वीरों से झांकती हुईं।
आज जब देश के फासीवाद निजाम की ओर से सामाजिक-आर्थिक वंचना व गैरबराबरी के खिलाफ हम मेहनतकशों के संघर्ष के महान नायकों - लेनिन, पेरियार, अम्बेदकर, भगत सिंह आदि के स्मारकों, मूर्तियों व स्मृति चिन्हों तक के प्रति देशव्यापी उन्मत, घृणित व हिंसक अभियान छेड़ दिया गया है, कॉ. मंजू को याद करना बेहद जरूरी लगता है।
रणवीर सेना के गुंडों ने 10 नवम्बर 2003 को जहानाबाद जिले के पुराण गांव में कायरता की एक नई मिसाल कायम करते हुए उन्हें मार डाला था। अपने दो साथियों के साथ लौट रही मंजू देवी पर कई गोलियां दागी गयीं जबकि वह हत्यारों के सामने अकेली और निहत्थी खड़ी थीं। हत्यारे तभी हटे जब उन्हें उनके जीवित न बचने का पक्का यकीन हो गया। तब उनकी उम्र महज तैतीस बरस थी।- संतोष सहर)

जन्म और बचपन
जहानाबाद जिले (अब अरवल) का एक गांव है - खरसा। यह गांव उस लक्ष्मणपुर-बाथे गांव से ज्यादा दूर नहीं जहां 31 दिसंबर 1997 को 59 दलित-गरीबों का नृशंस जनसंहार हुआ था।
वर्ष 1970 में 14 अप्रैल को जो बाबा साहेब भीमराव अम्बेदकर का जन्मदिन भी है, मंजू पैदा हुईं। वे अपनी माता-पिता शांति देवी और शिवसेवक साव की पहली संतान थीं। अपने चार छोटी बहनों और दो छोटे भाईयों समेत चचेरे भाई-बहनों समेत भरा-पूरा लेकिन गरीब परिवार। पिता और चाचा विरासत में मिले चावल की लदनी-बेचनी का काम करते थे। दस कट्ठा जो पुश्तैनी जमीन थी, वह भी कब की बिक चुकी थी। सबसे बड़ी सन्तान थीं इसलिए बचपन लाड़-प्यार में ही बीता।

पहला सबक
10 साल की उम्र हुईं तो मंजू ने स्कूल जाने की ज़िद ठान लीं। गरीब मां-बाप ने खरसा टोले के प्राथमिक विद्यालय में नाम लिखा दिया।
स्कूल आने-जाने के दौरान ही मंजू ने समाज की गैरबराबरी, जाति व लिंग आधारित पूर्वाग्रहों, भेदभाव व हिंसा का प्रत्यक्ष अनुभव हासिल किया। भूमिहार जाति के दबंग मालिकों के बिगड़ैल बच्चे हर बहाने से दलित-गरीबों के बच्चों के साथ मारपीट व बच्चियों के साथ छेड़खानी किया करते। उनके घरवाले भी हर शिकायत की अनसुनी करते। मंजू ने अपने दलित-गरीबों के बच्चों के साथ मिलकर उनका विरोध करना शुरू किया। इस तरह उनके किशोर मन में अन्याय के प्रतिकार व सामंती हिंसा के प्रतिकार के पहले बीज अंकुरित हुए।
यही समय था जब सरवरपुर, कईल, कामता आदि आसपास के गांवों में नई हलचल शुरू हुई। आइपीएफ तथा भाकपा-माले का संगठन बनने लगा। लोदीपुर में भी आइपीएफ के लोग आने-जाने लगे। दलित टोले खरसा में तो मजबूत संगठन बन गया। 1985 के विधानसभा चुनाव आया। दबंगों ने गोली चलाई और गांव का बूथ कब्जा कर लिया। इस घटना ने गरीबों के भीतर अपना संगठन बनाने के संकल्प को और बढ़ा दिया।
पिता शिवसेवक साव बताते हैं कि सरवरपुर के इंदल मेहता (लोकप्रिय नाम गांधी जी) और कुंती देवी तथा बेलावं की मीना देवी आइपीएफ में थीं। खरसा टोले के सिद्धेश्वर, राजबलि और रामईश्वर पासवान भी थे। मंजू भी गांव स्तर पर आइपीएफ से जुड़ गई। बैठकों की खबर करना, बाहर से आये लोगों के खाने-सोने की व्यवस्था करना और सभा-जुलूसों में आना-जाना। यह देखकर मेरे मन में भय पैदा होने लगा। मालिकों का दबाव व धमकी मिलती और जाति-बिरादरी की नसीहतें। मैंने समझाने-बुझाने से लेकर डराने-धमकाने तक के तरीके आजमाने शुरू कर दिये। लेकिन, अंततः उसने मुझे भी कायल कर लिया, अपना समर्थक बना लिया।
कॉ. मंजू का अपने अपने भाई-बहनों से असीम लगाव था। वे उनका बहुत खयाल रखती थीं। बदले में उनका भी आदर-प्यार उन्हें मिलता। वे पास-पड़ोस के गरीबों की हर तरह से मदद करने को हमेशा तत्पर रहतीं। वे गांव-घर की चहेती बन गयीं।
उसी समय एक घटना घटी। एक रात शिवसेवक साव के घर में चोरी हो गयी। चोर घर का सारा सामान, कपड़ा-लत्ता और अनाज-पानी उठा ले गए। चोरी किसने करवायी यह समझना मुश्किल नहीं था। आइपीएफ ने इस गाढ़े वक्त में परिवार का पूरा साथ दिया। जरूरत का हर समान मुहैय्या कराया। अब पूरा परिवार ही आइपीएफ का मुरीद बन गया। मंजू भी जोश-खरोश से संगठन का काम करने लगीं।
चर्चित महिला नेता कॉ. कुंती देवी बताती हैं कि मंजू से मेरी पहली भेंट 1985 में ही हुई थी। लोदीपुर-खरसा गांव में महिला संगठन की बैठक हो रही थी। वह देखने-सुनने के लिए बैठक में आयी थीं। उनको बैठक में शामिल कर लिया गया। बारह-तेरह साल की लगती थीं। मैंने जब बात चलायी तो संगठन का कामकाज करने को तैयार थीं।
20 सितंबर 1988 को सामंतों ने आइपीएफ के स्थानीय नेता कॉ. चितरंजन मिश्र की हत्या कर शव गायब कर दी। कॉ. मंजू ने उनके शव को ढूंढने में सक्रिय भूमिका निभायी जो अंततः एक तालाब में मिला। तब वे सातवीं कक्षा में थीं। इस हत्या के खिलाफ चले आंदोलन के दौरान ही उनकी सक्रियता अगले स्तर तक पहुंची।

युवा जोश
अरवल रेड क्रॉस सोसायटी के अध्यक्ष कॉ. राजनारायण चौधरी बताते हैं : ' मैंने लाल छींट का फ्रॉक पहने एक बच्ची को झंडा थामे जुलूस के आगे-आगे चलते और नारा लगाते देखा। वह देखने में बमुश्किल 15 साल की लगती थी। वह जल्द ही जनवादी महिला मंच की नेता और भाकपा-माले के पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता के बतौर काम करने लगीं।
1989 में करपी प्रखंड के केयाल गांव में एक माले कार्यकर्त्ता रामप्रवेश दास (राजेश) को सामंती गुंडों ने हत्या कर देने की नीयत से पकड़ लिया। कॉ. मंजू ने तुरत ही लोगों को संगठित किया, गुंडों का प्रतिरोध किया था और उन्हें छुड़ा लिया था। 1990 के विधानसभा चुनाव में जब कॉ. रामाधार सिंह अरवल के प्रत्याशी थे, वह रोजाना हम सबके साथ प्रचार जत्थे में शामिल होती। कॉ. शाह चांद के घर में उसको शेल्टर दिया गया जहां पूरा परिवार उसे अपनी बच्ची की तरह प्यार-दुलार देता। उसके खाने-पहनने का सारा इंतजाम करता। चुनाव बाद वह करपी में ही काम करने लगीं। इसी दौरान उनकी शादी भी हुई और जीवन में एक नया अध्याय जुड़ गया।
1990 में करपी के प्रमुख नेताओं में थे - कॉ. सुभाष सिंह, रामप्रवेश विश्वकर्मा और अशोक वर्मा। कॉ. सुभाष सिंह पार्टी के चंद शुरुआती नेताओं में थे। पार्टी कामकाज के दौरान ही वे और कॉ. मंजू एक दूसरे के नजदीक आये, घनिष्ठ हुए और फिर शादी करने का फैसला लिया।
कॉ. सुभाष सिंह बताते हैं " हमारी शादी अंतर्जातीय थी। मैं राजपूत जाति से था। इस शादी को लेकर मेरे पिता या परिवार में कोई विरोध नहीं हुआ। लेकिन, कॉ. मंजू के पिता व परिवार का विरोध रहा। उनके घर से बाहर आने-जाने पर रोक लगा दी गयी थी। शादी से एक दिन पहले जब उनको अपने मामा के घर (गैनी गांव) पहुंचाया जा रहा था, उन्होंने बीच रास्ते घर में कपड़ा छूट जाने का बहाना बनाया और तब पार्टी के जिला सचिव रहे कॉ. अजित (सुरेश मेहता) के पास जा पहुंचीं। हमारी शादी 2 अप्रैल 1990 को अलावलपुर गांव में हुई थी। सारा इंतजाम जल श्रमिक संघ के नेता रामचरित्तर जी ने किया था। कॉ. शिवसागर शर्मा ने हमें शादी की शपथ दिलवाई थी।"

जीवन की राहों पर
शादी के बाद भी कॉ. मंजू देवी की राजनीतिक सक्रियता कम नहीं हुई। 1992, 1995 व 1997 में क्रमशः अनिल कुमार, धीरेंद्र और जयप्रकाश का जन्म हुआ। इन तीनों का पालन-पोषण करते हुए भी वे माले और महिला संगठन के कार्यक्रमों में सक्रियतापूर्वक हिस्सा लेती रहीं।
"कॉ. मंजू से हुई पहली मुलाकात मुझे अब भी याद है। वे 1990 के अंत में किसान महिला सेल द्वारा आयोजित महिला कन्वेंशन में भाग लेने पटना आयी थीं। एक दुबली-पतली लड़की का शुद्ध खड़ी बोली में दिया गया वह ओजपूर्ण वक्तव्य आज भी भुलाए नहीं भूलता" - ऐपवा की राज्य अध्यक्ष कॉ. सरोज चौबे बताती हैं।
फिर भी घर-परिवार की जिम्मेवारियों, खास तौर पर तीन-तीन बच्चों का लालन-पालन करना एक बड़ी जिम्मेवारी है। कॉ. मंजू देवी ने उचित तालमेल कायम करते हुए अपने बच्चों समेत एक संयुक्त परिवार में सबका, यहां तक कि पूरे गांव का प्यार व सम्मान हासिल किया।
1998-2005 के बीच भाकपा-माले के जहानाबाद जिला सचिव के रूप में काम कर चुके कॉ. कुणाल कहते हैं - 1998 में जब मैं यहां पहुंचा था जिले में लंबे समय बाद एक नया माहौल था। जिले में जनांदोलन तेज करने की पूरी संभावना मौजूद थी। संगठन को भी नई गति व ऊर्जा मिल रही थी। एक नया दौर जिसमें रणवीर सेना एक प्रमुख चुनौती बनकर सामने आयी थी। पार्टी यूनिटी व एमसीसी अपनी अराजक नीतियों की वजह से उसके खिलाफ असफल साबित हो रहे थे। रणवीर सेना की मदद में सरकार भी खड़ी थी। अराजकतावादी कार्रवाइयों व संगठनों पर रोक लगाने की आड़ लेकर जिले में भारी पुलिस फौज तैनात थी। गरीब एक ओर रणवीर सेना की हिंसा तो दूसरी ओर पुलिस का भयानक दमन झेल रहे थे। इन दोनों के खिलाफ व्यापक दायरे में प्रचार अभियान छेड़ते हुए जोरदार व जुझारू प्रतिरोध खड़ा करना वक्त की जरूरी मांग थी। कॉ. मंजू देवी ने इस जरूरत को बेहद संजीदगी से आत्मसात किया। उन्होंने अपने राजनीतिक सक्रियता की दूसरी उड़ान भरी और अगले पांच वर्षों की अल्प अवधि में ही खुद को उस ऊंचाई पर स्थापित कर दिया जो एक नया प्रतिमान बन गया।
करपी के खड़ासीन में रणवीर सेना द्वारा तीन महिलाओं समेत 8 गरीबों का जनसंहार (2 सितंबर 1997) हो या अरवल के इमामगंज में पुलिस द्वारा दो स्कूली छात्रों की हत्या (18 जून 2000) या बलौरा गांव में एक दलित परिवार के दो लोगों की हत्या (2001) - कॉ. मंजू हर हत्याकांड के खिलाफ आंदोलन की अगली कतार में खड़ी रहीं।
कॉ. मंजू ने करपी बाजार में व्यवसायी वीरेंद्र गुप्ता की हत्या, करपी गाँव के किसान कृष्णा प्रसाद पर जानलेवा हमला, आजादनगर (किंजर) के झिकटिया टोले में दो बच्चों समेत दलित महिला की हत्या, करपी के मुरारी गांव में एक किसान की हत्या तथा पुराण गांव में दो युवकों की हत्या की घटनाओं के खिलाफ भी आंदोलन खड़े किए।

महिलाओं की सशक्त आवाज
बंशी प्रखंड के अनुआ गांव में एक रात रणवीर गुंडे एक बनिया परिवार के घर में जबरन घुस गए। पहले तो घर की महिलाओं की आबरू लूटने का प्रयास किये और जब विफल रहे तो बुरीतरह मार-पीट किये। खबर पाते ही कॉ. मंजू वहां पहुंची, प्रतिवाद सभा आयोजित किया और उन पर मुकदमा दर्ज करवाकर ही दम लीं। करपी बाजार में एक महिला किरायेदार और बसनबिगहा में एक दलित लड़की (2002) के साथ बलात्कार करनेवाले सामंती अपराधियों के खिलाफ भी मंजू डटकर खड़ी हुईं।
याद होगा कि कुर्था प्रखंड के सेनारी गांव में जहां एमसीसी ने रणवीर सेना समर्थक बता 34 सवर्ण लोगों की हत्या कर डाली थी (18 मार्च 1999 को)। अगले साल पुलिस ने भी भूमिहार जाति के लोगों के घरों में घुसकर महिलाओं की बर्बरतापूर्वक पीटा। कॉ. मंजू के नेतृत्व में इस घटना के खिलाफ भी प्रतिवाद सभा का आयोजित की गयी।

जन प्रतिनिधि 
सोनभद्र-वंशी-सूर्यपुर जिला परिषद क्षेत्र में आठ पंचायतें हैं - माली बिगहा, खड़ासीन, शेरपुर, अनुआ, सोनभद्र, सेनारी, खटांगी और चमण्डी। पहले यहां एमसीसी का प्रभाव था। वे माले कार्यकर्त्ताओं की भी हत्याएं कर दिया करते थे। लेकिन, जब रणवीर सेना का खूनी दौर शुरू हुआ, वे गरीबों की रक्षा करने के बजाय इलाका खाली कर दिए।
कॉ. मंजू देवी ने गरीबों पर रणवीर सेना-पुलिस द्वारा हत्या-बलात्कार की हर छोटी-बड़ी घटना के खिलाफ पहल की, प्रतिरोध खड़ा किया और गरीबों को इसमें संगठित किया। वह दुःख-सुख की हर घड़ी में उनके साथ खड़ी रहीं। वह जनता का सर्वप्रिय नेता बन गयीं। 2001 में यहां से ही उन्होंने जिला परिषद का चुनाव जीता। रणवीर सेना की महिला प्रत्याशी रीना देवी को भारी मतों से पराजित किया। अपनी जीत को उन्होंने जनसंघर्षों की जीत बताया था।
अरवल के जिला सचिव कॉ. महानन्द बताते हैं : वे बहुत हीं साहसी थीं। तेजी से और सही दिशा में पहलकदमी लेती थीं। एक घटना है कि गांव के दबंग ने गरीब पर खलिहान से धान की चोरी का झूठा आरोप लगाया और उसे पकड़कर मारने-पीटने लगा। वे तुरत वहां पहुंचीं, घूम-घूम कर पूरा गांव को अपने साथ कर लिया और उसे मुक्त करवाया। करपी प्रखंड के मुरारी गांव में रणवीर सेना ने एक किसान की हत्या कर दी। उन्होंने मजिस्ट्रेट से लिखित आश्वासन लिए बगैर शव को उठाने नहीं दिया। प्रशासन ने उन पर इलाके में अशांति फैलाने का मुकदमा दायर किया। वे शासन की धौंस-धमकियों की जरा भी परवाह नहीं करती थीं।
कॉ. कुंती बताती हैं "मंजू में जननेता के जबरदस्त गुण थे। वह बहुत मिलनसार थी, सचेत व समझदार भी। सब कुछ तुरत सीख लेती। गरीबी में पली-बढ़ी थीं सो सहज हीं गरीबों में घुल-मिल जाती। साहसी थी, डर-भय बिल्कुल नहीं था। खूबसूरत, सलीकेदार और पढ़ा-लिखा होने की वजह से वह ऊंची जातियों की युवतियों को भी आकर्षित कर लेती थी। महिलाओं के बीच तो बहुत ही लोकप्रिय थी।''
"कॉ. मंजू आंदोलन और पार्टी के प्रति निष्ठा व वफादारी की मिसाल थीं। जिम्मेवारियों के प्रति हमेशा उत्साही रहतीं। बेहद खुशमिजाज व फुर्तीली जो कठिन से कठिन काम को भी सहजता से सम्पन्न कर देतीं। मध्यवर्गीय शहरी आधार में भी बेहिचक घुस जातीं और वहां अपने समर्थक बना लेतीं। साहस और गरिमा, ये गुण उन्होंने गरीब जनता से परिश्रमपूर्वक हासिल किया था। उस जनता से जो उन्हें अटूट प्यार करती थी।" - कॉ. कुणाल बताते हैं।

वो शाम हत्यारी
धरनई गांव के माले कार्यकर्त्ता विजय बताते हैं : "मैं खुशकिस्मत रहा कि वे मेरे बड़े भाई की पत्नी थीं। उन्होंने मुझे अपने बच्चों की तरह ही प्यार दिया। उस दिन भी मैंने ही अपनी मोटरसाइकिल पर उन्हें बैठक में पहुंचाया। उन्होंने अपने हाथों से मुझे मछली खिलायी। दोपहर बाद मैं वहां से लौटा था।
शाम को यह सुनकर कि रणवीर हत्यारों ने करपी लौटते वक्त पुराण गांव में उनकी हत्या कर दी, गांव-घर में कोहराम मच गया। महिलाएं-बच्चे दहाड़ मारकर रोने लगे। जान ले लेने की धमकियां उनको हर रोज मिलती थीं। किसको पता था कि वह आज ही सच साबित हो जाएंगी।"
कॉ. मंजू के साथ दो और लोग भी थे, अवधेश और अशोक वर्मा। अवधेश कहते हैं कि दिन का समय था इसलिये लगा कि ऐसा कुछ नहीं होगा। आशंका तो हमेशा ही रहती थी। पुराण गांव हमलोग पार करने ही वाले थे कि अचानक हथियारबंद हत्यारे सामने दिख गये। वहां प्रतिरोध करना असंभव था।
11 नवंबर को उसी जगह की गई संकल्प सभा से जिसमें पांच हजार से भी अधिक लोग शामिल थे, जहानाबाद के नदी घाट तक कॉ. मंजू की अंतिम यात्रा शुरू हुई।
कॉ. मंजू की इस कायरतापूर्ण हत्या का देश के हर कोने में विरोध हुआ। जहानाबाद, अरवल, भोजपुर, सिवान, पटना, दरभंगा सब जगह गरीबों, महिलाओं व न्यायपसन्द लोगों ने शोक मनाया। राष्ट्रीय महिला आयोग की टीम ने हत्यास्थल का दौरा किया व हत्यारों को सजा दिलाने की मांग की।
चर्चित वामपंथी चिंतक जेम्स पेत्रास (अमेरिका ) समेत ब्रिटेन के दर्जनों बुद्धिजीवियों तथा लेबर पार्टी ऑफ पाकिस्तान, यूरोपियन पार्लियामेंट (फ्रांस) तथा सोशलिस्ट पार्टी ऑफ लेबर (फिलीपींस) ने हत्यारों की गिरफ्तारी की मांग करते हुए बयान व पत्र भेंजे।
जहानाबाद के साथी ब्रह्मदेव ने उनकी शहादत पर यह गीत लिखा था :
"बिलखत मजदूर किसानवा हो,
कामरेड मंजू जी हो गइली सपनवा!
दस तारीख रहे, नवंबर महीनवा,
चार बजे सांझ रहे, सोमवार दिनवा,
गोलिया मरलस रणवीर सेनवा हो!
कामरेड मंजू जी हो गइली सपनवा!
गांवें-गांवें, टोले-टोले, खबर पाई,
रोवत-पीटत आवे मजदूर भाई,
घर में रोवे तीन-तीन ललनवा हो!
कामरेड मंजू जी हो गइली सपनवा!
उनकी प्रिय पार्टी भाकपा-माले ने उनको श्रद्धाजंलि देते हुए कहा - "कॉ. मंजू उन बहादुर नई महिलाओं की ठेठ प्रतिनिधि थीं, जो नवजनवाद के लिए, नये बिहार के लिए पिछले तीन दशकों से जारी संघर्ष के दौरान उभरी हैं।"

शर्म उनको मगर नहीं आती
हफ्ते दिन बाद रणवीर सेना ने प्रेस बयान जारी कर इस घृणित हत्या की जिम्मेवारी लेते हुए कॉ. मंजू की हत्या को सही ठहराने की बेशर्मी दिखाई भी दिखा दी। लेकिन जिले के गरीबों के दिल में जमा शोक नया संकल्प बनकर खड़ा था।
हजारों लोगों की सभा के साथ 25 जनवरी 2004 को करपी में कॉ. मंजू के स्मारक व मूर्ति का अनावरण हुआ। शहीद मंजू जीवित मंजू जैसी ही ताकतवर साबित हुईं। हत्यारे उनकी मूर्ति को भी क्षति पहुंचाने की कोशिशों से बाज नहीं आये। लेकिन, आज भी यह मूर्ति व स्मारक गरीब लोगों के गौरव का गान करते हुए वहां खड़ा है।

Thursday, October 25, 2018

का. रामनरेश राम की आठवीं बरसी पर आरा में होगी ‘भाजपा भगाओ, किसान बचाओ रैली’

आरा में अखिल भारतीय किसान महासभा की ओर से 26 अक्टूबर को ‘भाजपा भगाओ किसान बचाओ रैली’ होने वाली है। यह रैली भोजपुर के क्रांतिकारी किसान आंदोलन के शिल्पकारों में से एक का. रामनरेश राम की आठवीं बरसी के मौके पर हो रही है।


रामनरेश राम : किसानों की मुक्ति के प्रति प्रतिबद्ध एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट 

किसान-मजदूरों, दलित-वंचित-उत्पीड़ित समुदायों और लोकतंत्रपसंद लोगों के प्रिय नेता, 60 के दशक के लोकप्रिय मुखिया और 1995 से लगातार तीन बार विधायक रहने वाले अत्यंत ईमानदार और जनप्रिय विधायक का. रामनरेश राम का पूरा जीवन एक प्रतिबद्ध क्रांतिकारी कम्युनिस्ट का जीवन था। 

1924 में जन्मे का. रामनरेश राम जब मीडिल स्कूल में पढ़ रहे थे, तभी 1942 का आंदोलन हुआ। उसी साल 15 सितंबर को भोजपुर के लसाढ़ी गांव में आंदोलनकारियों की तलाश में गए ब्रिटिश हुकूमत के सैनिकों का किसानों ने परंपरागत हथियारों के साथ प्रतिरोध किया और उनकी मशीनगन की गोलियों से शहीद हुए। का. रामनरेश राम उन शहीद किसानों को कभी भूल नहीं पाए। स्कूल की पढ़ाई छूट गई और वे आंदोलन का हिस्सा हो गए। उसके कुछ वर्षों बाद ही तेलंगाना का किसान विद्रोह हुआ, उसके नेतृत्वकारी बालन और बालू की फांसी की खबर और आंदोलनकारियों पर लादे गए फर्जी मुकदमों के विरुद्ध कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए फंड जुटाने के लिए की गई कम्युनिस्ट पार्टी की अपील उन तक पहुंची और वे फंड जुटाने के कार्य में लग गए। 

1951 में का. रामनरेश राम को कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता मिली। उन्हें शाहाबाद जिला कमिटी का सदस्य बनाया गया। उन्हें किसानों के बीच काम करने की जिम्मेवारी मिली। बिहार सरकार ने जब सिंचाई रेट में दुगनी वृद्धि की, तो 10 मार्च 1954 को उसके विरुद्ध एक बड़ा प्रदर्शन कम्युनिस्ट पार्टी ने संगठित किया। 1965 में का. रामनरेश राम एकवारी ग्राम पंचायत के मुखिया चुने गए। मुखिया के रूप में वे इतने लोकप्रिय हुए कि उनके इलाके के किसान-मजदूर अंत-अंत तक उन्हें मुखिया कहकर ही संबोधित करते रहे। 1967 में जब वे सहार विधान सभा से सीपीआई-एम के उम्मीदवार के बतौर चुनाव लड़ रहे थे, तभी उनके चुनाव एजेंट जगदीश मास्टर पर सामंतों ने जानलेवा हमला किया। उसके बाद ही सामंती शक्तियों और राज्य तंत्र के गठजोड़ के खिलाफ हथियारबंद संघर्ष शुरू हुआ। भोजपुर में सामंती सामाजिक ढांचे और उसकी हिमायत में खड़े राजनीतिक तंत्र के खिलाफ संग्राम छिड़ गया। रामनरेश राम, जगदीश मास्टर, रामेश्वर यादव समेत सभी नेतृत्वकारियों को भूमिगत होना पड़ा। तब तक 1967 का नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह हो चुका था और भोजपुर का किसान आंदोलन उस आंच से सुलग उठा था। एक नई कम्युनिस्ट पार्टी भाकपा-माले का जन्म हो चुका था। भोजपुर किसान आंदोलन के नेतृत्वकारी उसमें शामिल हो चुके थे। शासकवर्ग ने इस आंदोलन को कुचल देने के लिए भीषण दमन का सहारा लिया। का. रामनरेश राम के सहयोद्धा का. मास्टर जगदीश और का. रामेश्वर यादव शहीद हो गए। भाकपा-माले के दूसरे महासचिव का सुब्रत दत्त भी पुलिस के साथ मुकाबला करते हुए शहीद हुए। बुटन मुसहर, रामायण राम, नारायण कवि, शीला, अग्नि, लहरी समेत कई कम्युनिस्ट कार्यकत्र्ताओं ने एक नए राज-समाज के लिए संघर्ष करते हुए अपनी शहादत दी। शोक और धक्के को झेलते हुए का. रामनरेश राम सर्वहारा की दृढ़ता और जिजीविषा के साथ अपने शहीद साथियों के सपने को साकार करने में लगे रहे। का. स्वदेश भट्टाचार्य और भाकपा-माले के तीसरे महासचिव का. विनोद मिश्र और अपने अनेक साथियों के साथ उन्होंने भोजपुर के किसान-मजदूरों को संगठित करने का काम जारी रखा। उन्होंने भाकपा-माले के संस्थापक महासचिव का. चारु मजुमदार की इस बात को आत्मसात कर लिया था कि जनता की जनवादी क्रांति जरूरी है, जिसकी अंतर्वस्तु कृषि क्रांति है। अस्सी के दशक में उन्हें भाकपा-माले के बिहार राज्य सचिव की जिम्मेवारी मिली। इसके पहले बिहार प्रदेश किसान सभा का निर्माण हो चुका था। का. रामनरेश राम, स्वतंत्रता सेनानी और जनकवि का. रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’ और कई अन्य नेताओं ने बिहार प्रदेश किसान सभा का गठन किया, जो अब अखिल भारतीय किसान महासभा में समाहित हो चुका है। 

का. रामनरेश राम जब विधायक बने, तो उन्होंने सिंचाई के साधनों को बेहतर बनाने की हरसंभव कोशिश की। मुकम्मल भूमि सुधार और खेत मजदूरों, बंटाईदार और छोटे-मंझोले किसानों के हक-अधिकार के लिए सदैव मुखर रहे। विधायक बनने के बाद उन्होंने 1942 के शहीद किसानों की याद में एक भव्य स्मारक बनवाया। किसान विद्रोहों और आंदोलनों के प्रति उनके मन में गहरा सम्मान था। उनके लिए 1857 का जनविद्रोह किसानांे के बेटों द्वारा किया गया विद्रोह था। वे स्वामी सहजानंद सरस्वती को ब्रिटिश शासनकाल में बिहार में किसान आंदोलन की शुरुआत में स्वामी सहजानंद सरस्वती की अहम भूमिका मानते थे। जीवन के अंतिम वर्षों में का. रामनरेश राम बदले हुए दौर में किसान आंदोलन पर एक किताब लिखना चाहते थे, जो संभव नहीं हो पाया। 26 अक्टूबर 2010 को उनका निधन हो गया। 
इस बार उनकी आठवीं बरसी का अवसर किसानों की मुक्ति के उनके सपनों के लिहाज से महत्वपूर्ण होगा। इस मौके पर ‘खेत, खेती, किसान बचाओ, कारपोरेट लूट का राज मिटाओ’ नारे के साथ जो ‘भाजपा भगाओ, किसान बचाओ’ रैली हो रही है, उसे भाकपा-माले के महासचिव का. दीपंकर भट्टाचार्य के साथ अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव का. हन्नान मोला, अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के नेता समाजवादी विचारक योगेंद्र यादव और अखिल भारतीय किसान महासभा के महासचिव का. राजाराम सिंह संबोधित करेंगे। इस रैली के तुरत बाद अखिल भारतीय किसान महासभा का दो दिवसीय राज्य सम्मेलन शुरू होगा, जिसमें बिहार के विभिन्न जिलों से आए प्रतिनिधि, अतिथि भाग लेंगे।

देश के आंदोलनरत किसानों के हमराह हैं भोजपुर के किसान

पिछले कुछ वर्षों में सरकार की कारपोरेटपरस्त नीतियों के खिलाफ पूरे देश में किसानों ने जगह-जगह जुझारू आंदोलन किए हैं। चाहे भूमि अधिग्रहण के विरोध का सवाल हो या सिंचाई का या डीजल, बीज, खाद की बढ़ती कीमत का या फिर सरकारी उपेक्षा और तमाम प्रतिकूलताओं का सामना करते हुए उत्पादित किए गए फसलों की वाजिब कीमत का, इन सवालों को लेकर किसानों ने जो आंदोलन किए हैं, उन आंदोलनों पर केंद्र की मोदी सरकार समेत भाजपा की राज्य सरकारें हिंसक हमला किया है। किसानों को अपनी शहादत भी देनी पड़ी है। हजारों की तादाद में किसान अपने सवालों को लेकर देश और राज्यों की राजधानी पहुंचने लगे हैं। लेकिन भाजपा की सरकारें उनकी मांगों को सुनने के बजाय उन पर लाठी-गोली चलवा रही हैं। किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला बदस्तुर जारी है। भाजपाई मंत्रियों ने किसानों पर अपमाजनक टिप्पणियां करने में पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। जाहिर है ऐसे में ‘भाजपा भगाओ, किसान बचाओ’ सिर्फ एक रैली का नाम नहीं रह जाता, बल्कि एक वाजिब नारा, एक जरूरी अपील बन जाता है, इसमें देश के किसानों का आक्रोश झलकता है- उन वास्तविक किसानों का, जिनकी आजीविका का आधार कृषि ही है, जिसे भाजपा की सरकारों ने और बदतर स्थिति में धकेल दिया है। 

भोजपुर में भाकपा-माले न केवल अखिल भारतीय किसान महासभा के साथ बल्कि आम किसानों के हर सवाल और संघर्ष के साथ खड़ी रहती है, उसके कार्यकर्ता रैली की तैयारियों में जुटे हुए हैं। अभी पिछले ही माह 21 सितंबर को पटना में एक बड़ी रैली पार्टी ने की। उसके बाद उसके कार्यकर्ता भोजपुर की किसान रैली की तैयारी में जुट गए। त्योहारों का समय है, पर महंगाई की भीषण मार किसान से लेकर छोटे व्यवसायियों तक पर पड़ रही है। सरकार के प्रति असंतोष और क्षोभ हर ओर है। सिर्फ किसान ही नहीं, समाज का हर तबका भाजपा से मुक्ति चाहता है। 

पीरो प्रखंड में अखिल भारतीय किसान महासभा के जिला सचिव का. चंद्रदीप सिंह, अगिआंव प्रखंड में इंकलाबी नौजवान सभा के राज्य अध्यक्ष का. मनोज मंजिल और किसान नेता का. विमल यादव, तरारी में का. कृष्णा गुप्ता, का. कामता प्रसाद सिंह और का. गणेश जी, सहार में का. उपेंद्र जी, का. रामकिशोर राय और का. मदन जी, संदेश में का. परशुराम सिंह और जीतन चैधरी, उदवंतनगर में का. शिवमंगल सिंह, का. राजू यादव और का. रामानुज जी, गड़हनी में का. महेश राम और का. छपित राम, चरपोखरी में का. विनोद मिश्र, का. टेंगर राम, का. रामईश्वर यादव, जगदीशपुर में का. अजित कुशवाहा और का. विनोद कुशवाहा, कोईलवर में का. विष्णु ठाकुर, बड़हरा में का. नंद जी, बिहिया में का. उत्तम जी, शाहपुर में का. हरेंद्र जी और आरा शहर में अखिल भारतीय किसान महासभा के जिला अध्यक्ष का. सुदामा प्रसाद और भाकपा-माले नगर सचिव का. दिलराज प्रीतम समेत कई नेताओं के नेतृत्व में रैली और राज्य सम्मेलन की तैयारी चल रही है। 24 अक्टूबर को रैली की तैयारी हेतु वाहन प्रचार निकाला गया, जिसके दौरान कई नुक्कड़ सभाएं हुईं। जिनको संबोधित करते हुए वक्ताओं ने भोजपुर में सूखे की स्थिति, धान में लगने वाले गलकी रोग, धान के नकली बीज देने वालों के विरुद्ध कार्रवाई और मुआवजे के सवाल को उठाया। भोजपुर के किसानों की मांग है कि नहरों में निचले छोर तक पानी पहुंचाने की व्यवस्था की जाए, सोन नहर के निजीकरण की साजिश को बंद किया जाए और सरकार उसका आधुनिकीकरण करे, डीजल अनुदान मिलना सुनिश्चित किया जाए और उसके लिए आॅनलाइन रजिस्ट्रेशन के बजाए आॅफलाइन रजिस्ट्रेशन किया जाए। बंटाईदार किसानों को पहचान पत्र दिया जाए, ताकि जो भी सरकारी राहत की योजना है, वह उन्हें भी मिल सके। बढ़ी हुई मालगुजारी दर को भी वापस लेने की मांग की जा रही है। इस वक्त भोजपुर के किसान चाहते हैं कि इस जिले को सरकार सूखा क्षेत्र घोषित करे। 

अखबारों में सिंचाई के सवाल पर किसानों के आंदोलन की छिटपुट खबरें छप रही हैं, पर किसान रैली को कोई खास तरजीह नहीं दी जा रही है। दिलचस्प यह है कि दैनिक जागरण में रैली के बारे में खबरें प्रायः नजर नहीं आ रही हैं। अखबार अपने टैगलाइन में भाजपा का मुखपत्र लिख देता, तो शायद ज्यादा बेहतर होता। खैर, जिस वक्त मोदी सरकार के गुनाहों से जुड़ी बड़ी-बड़ी खबरों पर मीडिया पर्दा डालने की कोशिश कर रही है, तो ‘भाजपा भगाओ, किसान बचाओ रैली’ के प्रति उसके रुख को समझा जा सकता है।

रैली प्रचार के आखिरी दिन 25 अक्टूबर को शाम में मशाल जुलूस निकाला जाएगा। इस बीच आइसा-इनौस से जुड़े छात्र-नौजवानों ने रैली स्थल और आरा शहर को झंडों और पोस्टरों से सजाने का काम भी शुरू कर दिया है। 

भोजपुर के किसान आंदोलन की विरासत की झलक भी मिलेगी रैली में

अखिल भारतीय किसान महासभा की रैली में भोजपुर के किसान आंदोलन की विरासत की झलक भी मिलेगी। रैली स्थल वीर कुंवर सिंह स्टेडियम का नाम भोजपुर किसान आंदोलन की नेतृत्वकारी त्रयी के दो शहीदों- का. जगदीश मास्टर और का. रामईश्वर यादव के नाम पर रखा गया है। बिहार प्रदेश किसान सभा के संस्थापक सदस्यों की तस्वीरें रैली स्थल पर होंगी। आरा शहर का नामकरण का. रामनरेश राम नगर किया गया है। राज्य सम्मेलन स्थल नागरी प्रचारिणी सभागार का नाम का. रमेशचंद्र पांडेय के नाम पर और मंच का नाम का. किशुन यादव और रामापति यादव के नाम पर रखा गया है। इस मौके पर शहीद किसान नेताओं के सम्मान में उनकी तस्वीरें भी लगाई जाएंगी। 


जो किसान का साथ निबाहे, सो सच्चा इंसान : रमता जी

किसान आंदोलन से जुड़े साहित्यकारों की याद होगी साथ


भोजपुर किसान आंदोलन की चेतना, उसकी हकीकत और उसके मकसद को अपने गीतों और कहानियों के जरिए अभिव्यक्ति प्रदान करने वाले जनकवि और स्वतंत्रता सेनानी रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’, विजेंद्र अनिल, दुर्गेंद्र अकारी, मधुकर सिंह, गोरख पांडेय, महेश्वर और उस आंदोलन पर ‘भोजपुर’ नाम से चर्चित कविता लिखने वाले जनकवि नागार्जुन को भी याद किया जाएगा। किसानों से संबंधित उनके गीतों और कविताओं के अंशों तथा उनकी तस्वीरों से रैली स्थल और राज्य सम्मेलन स्थल को सजाया जाएगा। यह संयोग है कि आगामी 30 अक्टूबर को जनकवि रमता जी का जन्मदिवस है और 3 नवंबर को विजेंद्र अनिल एवं 5 नवंबर को जनकवि दुर्गेंद्र अकारी और बाबा नागार्जुन का स्मृति दिवस है। का. रामनरेश राम की बरसी पर हो रही रैली और सम्मेलन उनकी विरासत और किसान आंदोलन के भविष्य के लिहाज से महत्वपूर्ण साबित होगी, ऐसी उम्मीद है।




Sunday, July 15, 2018

कथाकार व कामरेड मधुकर सिंह की याद में : संतोष सहर


मधुकर जी अब हमारे बीच नहीं है। चार साल पहले 15 जुलाई को ही उन्होंने हमसे विदा ली थी। अगले दिन आरा के पार्टी (भाकपा-माले) कार्यालय में, जहाँ अंतिम दर्शन के लिए उन्हें रखा गया था, एक श्रद्धांजलि सभा हुई थी। मैं उसमें शामिल था। फिर, पटना (20 जुलाई) और आरा (26 जुलाई) में आयोजित सभाओं में भी। मुझे उनसे जुडे दर्जनों लोगों के संस्मरणों व मन्तव्यों को जानने-सुनने का मौका मिला था। साथ ही इस सिलसिले से अपनी बातें कहने का भी।

अब जबकि मधुकर जी हमारे बीच नहीं हैं, हमें उनक़ी सच्ची विरासत को अक्षुण्ण बनाये रखने और उसे और भी समृद्ध करने का भी मजबूत संकल्प लेना होगा. मधुकर जी अपने लेखन ही नहीं बल्कि जीवन-व्यवहार में भी 'दुश्मन' खेमे में जा बैठे लोगों क़ी बार-बार और साफ-साफ पहचान की थी. यह नजर हमें भी हासिल करनी होगी. इस बेहद नाजुक दौर में जब देश भगवा तानाशाही के पैरों तले कराह रहा है। धर्म, जाति और धन की श्रेष्ठता के दम्भ से भरी कारपोरेट-मनुवादी-सामंती ताकतों का गठजोड़ गरीब-दलित-मुस्लिम-कमजोर आम जन का जीवन बेलगाम रौंद रहा है और सामाजिक न्याय के कुछ फर्जी मसीहा भी उसकी ही कुर्सी के पांयचे बन चुके हैं, इस नजर को हासिल करना और भी ज्यादा जरुरी है।

80' के दशक में भोजपुर हिंदी कहानी का सबसे 'उर्वर प्रदेश' लगता है। 80 के दशक में भोजपुर समेत मध्य बिहार के जिलों में धधक उठे गरीबों-दलितों-पिछड़ों के आंदोलन ने हिंदी कहानी को एक नई जमीन ढ़ी। इस 'आग' और 'धुंए' को जिन तीन कथाकारों ने सबसे अच्छे तरीके से ढूंढा, उनमें बिजेंद्र अनिल, मधुकर सिंह और सुरेश कांटक का नाम सबसे पहले आएगा। यह भी एक संयोग ही है कि ये तीनों ही पेशे से स्कूल शिक्षक थे। वे गांवों में रहते हुए ही कहानी लिखते रहे। बिजेंद्र अनिल व सुरेश कांटक तो उन गांवों से आते थे, जहां वर्ग-संघर्ष की लपटें सबसे तेज थीं। मधुकर जी उस आरा शहर व उसके पास के अपने गांव धरहरा में जहां यह लपट तेजी से पहुंच जाती थी। भोजपुर आंदोलन के रचनाकार कॉ. जगदीश मास्टर उनके सहकर्मी ही नहीं, आजीवन साथी भी रहे। गांव-समाज की हर धड़कन इन्हें साफ-साफ सुनाई पड़ती थी। इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती। बल्कि हम जिसे हिंदी कहानी का 'भोजपुर स्कूल' कहते हैं, उसे इससे जोड़कर ही समझा जा सकता है।

मुझ जैसे बहुतों के पास मधुकर जी की ढेर सारी स्मृतियां हैं। कई-कई तरह के संस्मरण हैं। अगर इन्हें जमा किया जाए तो उनके व्यक्तित्व के कई अनजाने पहलू जगमगा उठें। नाटकों व सिनेमा में भी उनकी गहरी दिलचस्पी रही। युवा नीति से उनका गहरा व आजीवन जुड़ाव रहा। जसम द्वारा किये गए उनके सम्मान समारोह (आरा) उनकी कहानियों के मंचन के दौरान मैं साथ ही बैठा। वे बहुत ही उत्सुक, सजग व सचेत दर्शक थे जो मंच पर चल रही हर गतिविधि पर सटीक टिप्पणी करते। एक कहानी का मंचन उन्हें अच्छा नहीं लगा। वे धीरे-से बोले - कहानी इनको (निर्देशक को) समझ में नहीं आयी। रोहित के निर्देशन में युवा नीति के नए कलाकारों ने 'दुश्मन' का मंचन किया। उसे देखते हुए उन्होंने खूब मजा लिया।
युवा नीति का पुनरोदय - उनके इस स्मृति दिवस पर क्या यह हमारा कार्यभार नहीं बनना चाहिए, साथियो।

यह उनकी एक पुरानी तस्वीर है। बहुत पुरानी भी नहीं। वे 2004 में गांधी मैदान में आयोजित हल्लाबोल रैली के मंच पर बैठे हुए हैं। कितना शांत, सुकून-भरी भंगिमा। आगामी 27 सितम्बर को गांधी मैदान में हम फिर एक रैली करने जा रहे हैं - भाजपा भगाओ-लोकतंत्र बचाओ रैली। लेकिन, वे इस बार हमारे साथ नहीं होंगे। उनकी स्मृति-भर होगी। हम उनकी स्मृति को अपनी ताक़त बना लें और इस रैली को 'दुश्मन' पर निर्णायक प्रहार बना दें।

Wednesday, June 13, 2018

कॉ_अशोक सिंह व दीपिका जी के लिए : संतोष सहर



वे हम सबके साथी हैं - पुराने साथी। अगर आप कभी आरा के पूर्वी रेलवे गुमटी स्थित पार्टी (भाकपा-माले) जिला कार्यालय गये हों तो जरूर ही मुलाकात होगी। मंझोले कद के, पतली कद-काठी, घनी हल्की काली-सफेद बाल-दाढ़ी वाले। जबसे यह कार्यालय है उसी वक्त से उसके एक प्रमुख स्तम्भ। कॉ. रामनरेश राम 1995 से मृत्युपर्यन्त (अक्टूबर 2010) तक सहार क्षेत्र के विधायक रहे और अशोक जी उनके प्रतिनिधि।
इस ऑफिस में हमेशा ही चहल-पहल रहती है। कई-कई तरह की गतिविधि। कहते हैं न कि आदमी पगला जाये, वैसी। एक बार किसी गांव से एक फोन आया। अशोक जी उस वक्त कहीं व्यस्त थे। फोन मैंने उठाया, पूछा -कहिये साथी क्या बात है? वे कोई किसान थे। बोले - मेरी भैंस कल शाम से गायब हैँ। अभी तक कुछ पता नहीं चला। उन्हें खोजने में पार्टी की मदद चाहिए, सो, अशोक जी से बात करनी है। उनकी भैंस शाम तक मिल भी गयी जो भटक कर बगल के गांव में अपने ही रिश्तेदार के 'नाद' पर थी।

पिता की छांव से बुआ की गोद में

साल 1952 में चरपोखरी प्रखंड के कनई गांव में उनका जन्म हुआ। पिता रामनारायण राय जिन्हें 'कलक्टर राय' भी कहते थे और मां सोनझारी देवी की दूसरी संतान ठहरे। एक बहन बड़ी, दो भाई, दो बहनें छोटी। बचपन में ही 'अंग्रेज भारत छोड़ो आंदोलन' का जादू चल गया सो पिता कांग्रेसी हो गये। कांग्रेसी पिता ने ही सबसे प्रेम का पाठ पढ़ाया। स्कूल की पढ़ाई बगल के हँसवाडीह गांव से की। फुआ रूपझारो देवी से कुछ ज्यादा लगाव था। उनके पति जो सप्लाई के इंस्पेक्टर थे, दूसरी शादी कर अलग रहने लगे थे। आरा के पश्चिम टोला में अपने घर में वे अकेली पड़ गयी थीं। उनकी देखरेख और आगे की पढ़ाई के लिये अशोक जी को आरा आना पड़ा। जिला स्कूल से मैट्रिक और महाराजा कॉलेज बीएससी तक की पढ़ाई पूरी हुई।

दूर देश की कथा

1952 में ही चरपोखरी के कनई गांव से सैकड़ो मील दूर अवस्थित बांग्लादेश के एक छोटे से गांव में रह रहा एक परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था। मनोरंजन भट्टाचार्य जिन्होंने अभी-अभी अपना घर बसाया था और जिनके पूर्वज बरसों से उस गांव में रह रहे थे, आधी रात के अंधेरे में अपनी नवोढ़ा पत्नी के साथ गांव छोड़ने को विवश हुये। बांग्ला देश साम्प्रदायिक दंगों की आग में धू-धू कर जल रहा था। बांग्लादेश की सीमा पार कर लेने के बाद भी, भय इस कदर हावी था कि वे मीलों दूर दंगारह रहे मनोरंजन भट्टाचार्य अपनी पत्नी के साथ 
डेहरी ऑन सोन में पिछले कुछ वर्षों से रह रहे और वहां के सामाजिक जीवन का अटूट हिस्सा बन चुके 'सेन मेडिकल' के मालिक ने उन्हें शरण दी। मनोरंजन भट्टाचार्य ने एलएमपी की डिग्री हासिल की, मेडिकल प्रैक्टिशनर बन गये और आसपास के दर्जनों गांवों में घूम-घूम कर लोगों का ईलाज करने लगे। किसान लोगों के बीच बंगाली डॉक्टर बाबू 'ईश्वर का अवतार' साबित हुए। धनहरा गांव के लोगों ने पहले तो उन्हें गांव में ही डिस्पेंसरी खोलने को राजी किया और फिर एक बना-बनाया पुराना मकान खरीदवा कर वहीं पर बस जाने के लिये मना लिया।

दीपिका के उजाले से रौशन हुई दुनिया

सात बच्चों - छह बेटियां व एक बेटा - सात बच्चों के साथ परिवार इस नई जमीन पर भी मजबूती से जम गया। मनोरंजन भट्टाचार्य और रामनारायण राय के बीच पहले जान-पहचान बनी जो चलते-चलते गाढ़ी दोस्ती में बदल गयी। वे अपनी दो बड़ी बेटियों की शादी कर चुके थे। उनसे छोटी दो - दीपिका और नीलिमा ने भी हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली थी। अब आगे की पढ़ाई के लिये उन्हें आरा आना था। मित्र रामनारायण ने मनोरंजन की परेशानी दूर करने की खातिर आरा के डीन्स टैंक (नवादा मुहल्ला) के पास एक किराये का घर खोज दिया। बच्चियां को गांव-घर-परिवार से अलग, दूर आरा शहर में रहना था, सो मित्र रामनारायण ने बेटे अशोक को हिदायत दी कि वे उनकी देखरेख करें - पढ़ाई-लिखाई व खाने-रहने की जरूरतों का ख़याल रखते हुए रेगुलर वहां आया-जाया करें।
कॉ. अशोक बताते हैं - "मैं अक्सर घूमते-टहलते उनके यहां चला जाता। दीपिका तब महिला कॉलेज में इंटरमीडिएट की छात्र थीं। इसी आने-जाने के दौरान न जाने कब एक लगाव-सा पैदा हो गया। मैं अच्छे स्वभाव का मन जाता था। पढ़ने में भी रुचि रखता था और बीएससी कर रहा था। सभी बहनों, भाई और मां-पिता को भी मैं खूब भाता था। लेकिन, मेरे मन में एक नैतिक हिचक भी थी। यह परिवार अपने गांव-घर से विस्थापित होकर, हजार कष्टों को झेलते हुए, फिर से इस सामाजिक-आर्थिक हैसियत में पहुंचा था। मेरे जरिये आगे का कोई कदम उठाना फिर से उन्हें एक नई तबाही में न डाल दे। मेरा मन बीच मंझधार पड़ी नाव की तरह डांवाडोल था।"
"लेकिन, इस बीच दीपिका और मेरे बीच - एक दूसरे के प्रति - लगाव बढ़ता ही चला गया। हम प्रेम में पड़ गये। जी हाँ, अब हम एक दूसरे के बगैर नहीं रह नही सकते थे।"

दश्त मिलता है मियां इश्क़ में घर से पहले

"इन्हीं दिनों दीपिका के घर में उनकी शादी की बातें चलने लगीं। उनकी दो बड़ी बहनों की शादी कोलकाता में भद्र बंगाली परिवारों में हो चुकी थी। उनके लिए भी कई अच्छे परिवारों के सुयोग्य लड़के मिल रहे थे। मैं बीएससी की परीक्षा देने जा रहा था। एडमिट कार्ड आ चुका था। यह 1973 की बात है। मेरे पिता भी मेरी शादी तय करने वाले थे। अब देर करना संभव नहीं था। हम दोनों ने तय किया कि अब हमें शादी करके इसे जग जाहिर कर देना चाहिये। सो हम कोर्ट पहुंचे और एक-दूसरे का पति-पत्नी होने का सर्टिफिकेट हासिल कर लिया।"
"दीपिका जी के पिता, माँ, बहन-भाई हमारी शादी के पक्ष में थे। लेकिन, मेरे पिता, चाचा और गांव-समाज इसके खिलाफ उबल उठा। मेरे पिता हम दोनों को तरह-तरह से डराने लगे, जिसमें दोनों को जान से मार-मरवा देने की बात भी शामिल थी। संपत्ति से बेदखली और घर-बदर तो आम बात थी।"
"जब प्यार किया तो डरना क्या? फ़िल्म मुगले आज़म का यह गाना अब भी सबकी जुबान पर रहता था। लेकिन हमारी कहानी कुछ और रही। 'अनारकली' अपने पिता के घर धनहरा चली गयी और 'सलीम' ने मायानगरी मुंबई की राह ली - बागी तेवर लिये हुए, रोजगार की तलाश में।"

बहना! ओ बहना!

"बम्बई (मुंबई) में मेरी बड़ी बहन रहती थी। उनके पति वहां सेल टैक्स अधिकारी थे। मैं उसका शरणागत हुआ। मैं किसी और जगह कहाँ जा सकता था? बहन और बहनोई ने मेरा पूरा साथ दिया, ताकत दी और अपने प्रभाव से मुझे फायरस्टोन टायर कम्पनी में अप्रेंटिशशिप की नौकरी भी दिलवा दी। उन्होंने पिता पर भी दबाव बनाया जब तक वे नाराज रहे , मैं वहां रहा। लेकिन, मन बेचैन ही रहा। हां, इस बीच कुछ कमाई हो गयी। पिता ने दीपिका को अपनी बहू मान लिया। नैहर में रह रही मेरी पत्नी के लिए दशहरा के मौके पर साड़ी-कपड़े व फल-मिठाई भेजे। उसके कुछ दिनों बाद ही मैं मुम्बई से गांव-घर लौटा।"

पिता! हे पिता!

"मुझसे छोटी मेरी दो बहनें थी। अब, जब उनकी शादी करने का मौका आया तो अड़चनें खड़ी हो गयीं। मेरे पिता ने हमारी शादी को मान लिया। उन्होंने 22 मई 1974 को समारोहपूर्वक हमारी शादी का भोज भी आयोजित किया, लेकिन वे चिंतित रहने लगे। मैं अपने परिवार से विलग दिखूँ और मेरी बहनों की शादी में मेरा विवाह मुद्दा न बने, इसलिए मुझे अपने पिता से किसी भी तरह से सम्पर्क न रखना एक शर्त्त बन गया। 22 मई 1974 को जो शादी समारोह हुआ, वह भी उनकी गैर मौजूदगी में ही हुआ। उनके जिगरी दोस्त रामसूरत राय (राय मोटर सर्विस के मालिक) ने 'समधी' का रोल निभाया। में अब भी घर की संपत्ति से वंचित था।"

"हम नया क़रीना सीख गये"

"मुंबई से जो कुछ भी कमाया था, वह खत्म होने लगा था। 1975 में मेरा पहला बच्चा भी इस दुनिया में आ चुका था। मेरी माली हालत डांवाडोल थी। एक दिन पता चला कि मेरे पास महज 500 रुपये बच रहे। घर में युवा पत्नी और एक मासूम नन्ही जान।"/
"मैंने इन्हीं 500 रुपयों से एक धंधा शुरू किया - कबाड़ी का काम। दो मजदूर भी रख लिये। हम तीनों घर-घर घूमते हुए कबाड़ जुटाने लगे। राजेंद्रनगर मुहल्ले में एक सस्ता-सा मकान - दो कमरे, एक छोटा-सा आंगन किराये पर मिल गया। पत्नी-बच्चा साथ रहने लगे। दीपिका टीचर की ट्रेनिंग करने लगीं। 1977 तक मैं 'कबाड़ीवाला' बना रहा। इस बीच मेरे दूसरे बेटे ने जन्म लिया।"
"रामसूरत राय मेरे साथ बड़े ही उदार थे। वे हर वक्त मुझ पर निगाह रखते थे। देर-सबेर जब उनको मेरी हालत की खबर मिली तो खबर भेज मिलने को बुलाया। अगले ही दिन सुबह मैं उनसे मिलने पहुंचा। उन्होंने पहले तो मुझे इतने दिनों तक दूर-दूर रहने के लिये फटकार लगायी। फिर आरा और सहार के बीच चल रही अपनी बस के मैनेजर की नौकरी दे दी। महीने में तीन सौ रुपये का वेतन और बाद में मेरी ईमानदारी व मेहनत देख हर रोज 5 रुपये और। इस नौकरी से जब तीन हजार रुपये मेरे पास जमा हो गये तो मैंने उनसे कहकर यह नौकरी छोड़ दी।"
"1980-88 के बीच मैंने कई तरह के काम किये। एक दोस्त के पिता जो नहर विभाग में कार्यपालक अभियंता बनकर आये के कहने पर कुछ दिनों ठेकेदारी भी की। कारीसाथ में आये एक बौद्ध भिक्षुक से प्रभावित होकर उनके मठ के सचिव के रूप में भी काम किया। 1988 में दीपिका जी को शिक्षिका की नौकरी लग गई। 1989 में पिता भी नहीं रहे। बहनें भी शादीशुदा हो अपने परिवार में रम गईं। दोनों भाई बड़े होकर नौकरी में चले गए। उनका परिवार भी बाहर रहने लगा। सो, मैंने आश्रम से छुट्टी ली और गाँव चला गया। आरा आना-जाना पड़ता ही था। मेरा परिवार जो यहीं था।"

गांव जिसके बगल से एक नदी बहती है

"74 के छात्र आंदोलन में मैं अपने दोस्तों के साथ शरीक था। नाथूराम, रमाकांत ठाकुर, पवन आदि सभी मेरे मित्र थे। मैंने आंदोलन की भरपूर मदद की थी। हालांकि कभी जेल नहीं गया। छात्र जीवन में अपने कॉलेज में भी मेरी एक पहचान थी जो एक जाति विशेष की एक निजी सेना के एक चर्चित दबंग को मेरे द्वारा सबक सिखाने की वजह से बनी थी।"
"मेरे गांव के बगल में एक नदी बहती थी। इस नदी पर सिंचाई के लिये लोग एक अस्थायी बांध बनाते थे। सरकार इसे बार-बार कटवा देती थी। गांव जाते ही उन्होंने मिट्टी ढो-ढोकर स्थायी बांध बनाना शुरू कर दिया। लोग भी इस काम में उतरे। भारी तादाद में पुलिस आयी और आते ही गोली चलाने लगी। दो किसान - संजय यादव और एक अन्य मारे गये। इस गोलीकांड की पूरे बिहार में चर्चा फैल गयी। इन किसानों के सवाल पर कोई संघर्ष खड़ा कर सके - वैसी पार्टी या संगठन की तलाश शुरू की। एक पत्रकार मित्र के जरिये आइपीएफ नेताओं से सम्पर्क हुआ। प्रखंड व जिला स्तर पर जोरदार आंदोलन चला। शहीदों का स्मारक भी बना और स्थायी बांध भी। अब बांध काटने कोई नहीं आता।"
इसके बाद कॉ. अशोक पर आइपीएफ व भाकपा-माले का लाल रंग कुछ यूं चढ़ा कि उसी के होकर रह गए।

न टूटे, न झुके : एक अनथक योद्धा

रणवीर सेना के खूनी हमलों के दौर में कॉ. अशोक जी की सक्रियता, दृढ़ता व तेजी की बदौलत हमने जिला प्रशासन व सरकार को कई बार बैकफुट पर धकेलने में कामयाबी पायी। बथानी जनसंहार के बाद डीएम गोरेलाल यादव को हटना पड़ा, एसपी एस के सिंघल को कठघरे में खड़ा होना पड़ा और एक अन्य एसपी आर के मल्लिक को घुटने टेकने पड़े। बौखलाये एएसपी संजय लाटकर (पीरो) ने उन्हें झूठे आरोपों के तहत चोरी-चुपके आरा से गिरफ्तार करने व जेल में डाल देने के जरिये झुका देना चाहा। लेकिन, उस पर किया मुकदमा वापस नहीं हुआ। यह मुकदमा जघन्य पसौर पुलिस गोलीकांड के बाद जिसमें मुसहर जाति के दर्जन भर लोगों की हत्या कर दी गयी थी, उन्होंने कोर्ट में जाकर दर्ज करवाया था।

होठों पे तबस्सुम है, आंखों में उदासी है

"अमित आनन्द 13 जून को पैदा हुआ था, 1975 में। जैन कॉलेज से जब इंटर पास कर गया तो कहने लगा कि अब आगे नहीं पढूंगा, बिजिनेस करूँगा । मुंबई में जो मेरी बहन रहती थी उसका बेटा (मेरा भांजा) भी इसी रे का था। मैंने घर का धान बेचा था। चौदह हजार रुपये लेकर वह गया। साठ हजार रुपये लोन लेकर वहां रेडीमेड कपड़ों का कारोबार शुरू किया। 20 मशीनें थीं और 25-30 लड़कों का पूरा स्टाफ। वर्कशॉप एक मुस्लिम परिवार के मकान में था। उनकी बच्ची भी सेल्स का काम देखती थी। उन दोनों में प्रेम हुआ। बच्ची बहुत ही नेकदिल और समझदार थी। रेहाना नाम था उसका। अपने घरवालों से बोली कि हम अमित से ही शादी करेंगे। घरवालों को राजी भी कर लिया। हमें भी भला क्या ऐतराज होता? बहन की एक बच्ची की शादी एक 'एक्सपर्ट डिजाइनर' से है जो मुस्लिम समुदाय से हैं। सो, हमने अमित और रेहाना की शादी कर दी। वही, मुंबई में। इस बीच उसे बहरीन से एक अच्छा ऑफर मिला था। एक महीने के लिये वहां गया भी।"

दबे पांव आयी दुख की झंझा

"20 जनवरी को अचानक हम पर वज्रपात-सा हुआ। खबर आयी कि अमित मुंबई में किसी लोकल ट्रेन से गिर पड़ा है। उसका सिर बुरीतरह कुचल गया है। हम भागे-भागे वहां पहुंचे। जिस अस्पताल में वह भर्ती था, उसके तमाम सहयोगी वहां जमा थे। सब के सब दुख में निढाल। लेकिन, वह इस दुनिया से जा चुका था।
उसके दोस्तों ने हमें अपनी ओर से कुछ भी नहीं करने दिया। सारा खर्च मिल-जुलकर उठाया। उन्होनें वर्कशॉप को बेच दिया। सारी मशीनों के दाम समेत बाजार में बकाया पैसे वसूल कर हमारे हाथ में रख दिये। लेकिन, अमित जो हमारे प्यार की पहली निशानी था, वहीं छूट गया था।"


"अभिषेक हमारा छोटा बेटा है। उसके दो बच्चे हैं अंतरा आनंद (10 वर्ष) और विश्वरुप (6 वर्ष)। दीपिका जी कुछ साल पहले रिटायर हो चुकी हैं। एक छोटा-सा घर यहां खरीद लिया है। अब उसी में रहना होता है।"
आज भी अगर आप आरा के माले कार्यालय जायें तो कॉ. अशोक जी आपको भेंट जाएंगे। नीम के पेड़ की छांव में कुर्सी पर बैठे। हल्की मुस्कान के साथ आपका स्वागत करते। लेकिन आज उनकी गहरी उदास आंखे किसी को खोज रही होंगी। आज 13 जून जो है। उस अमित आनंद के जन्म का दिन जिसने प्यार की खातिर जिंदगी दांव चढ़ा दी।
समय हर ज़ख्म को भर देता है। लेकिन ऐसे ज़ख्म शायद कभी नहीं भरते। कामरेड, यह लड़ाई जब हम सबकी साझी लड़ाई है तो यह उदासी भी हम सबकी साझी उदासी है। हम सब आपके साथ खड़े हैं।
-संतोष सहर 

Sunday, April 22, 2018

1857 की क्रांति और वीर कुंवर सिंह : अवधेश प्रधान

हमलोग छात्र जीवन में इतिहास में पढ़ते थे कि 1857 की क्रांति इसलिए असफल हुई क्योंकि इसमें कोई संगठन नहीं था और इसकी कोई योजना नहीं थी। मंगल पांडेय नाम के एकआदमी ने समय से पहले ही विद्रोह कर दिया इसलिए अंग्रेजों को मालूम हो गया, उन्होंने कुचल दिया। अलग-अलग तारीखों में बगावतें हुईं, जिससे लोगों ने समझा कि कोई संगठन या योजना नहीं थी। नए अध्ययनों के अनुसार ये अलग-अलग तारीखें ही बतलाती है कि इनमें एक योजना थी।

मेरठ चूंकि दिल्ली के सबसे करीब है इसलिए सबसे पहले वहां विद्रोह हुआ। उसके बाद पटना, आरा ने जुलाई तक समय लिया। कुंवर सिह हिचकिचाहट में या मजबूरी में इस लड़ाई में कूद पड़े, अंग्रेज इस बात को नहीं मानते। यद्यपि कुंवर सिंह काफी कर्ज में डूब गए थे। अंग्रेज मानते थे कि जमींदारी चलानी उन्हें नहीं आती थी, इसलिए उनकी नजर में वे भोले-भाले थे। लेकिन उनके तार बाकायदा पटना और भारत भर के विद्रोहियों से जुड़े हुए थे। उन्होंने पटना की यात्राएं भी की थीं। लगातार समाचारों का आदान-प्रदान और प्रचार का काम चल रहा था। सेठ जुल्फिकार मोहम्मद के परिवार से तीन पत्र बाद में उनके उत्तराधिकारियों ने दिए वे कुंवर सिंह के मुहर से दिए गए पत्र हैं। के.के. दत्त ने अपनी पुस्तक में उन्हें प्रामाणिक ठहराया है। सबसे प्रामाणिक किताब उन्हीं की है- ‘द लाइफ आॅफ कुंवर सिंह एंड अमर सिंह’। इस तरह के पत्र भी बतलाते हैं कि कुंवर सिंह के तार विद्रोहियों से जुड़े हुए थे। तभी तो दानापुर की बगावती फौजों ने दिल्ली के मुगल बादशाह का जयकारा करने के बाद अपना सेनापति घोषित किया कुंवर सिंह को। उसके बाद उन्होंने आरा की ओर कूच किया। अगर योजना नहीं थी तो क्या कोई एक दिन में दिल्ली के बादशाह का जयकारा लगाता है? रामविलास शर्मा ने 1957 में जो अपनी पुस्तक पूरी की, तब तक तमाम बुद्धिजीवी इसको फ्रीडम मूवमेंट मानने को ही तैयार नहीं थे। उस पुस्तक में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि सभी बगावती फौजों का मुगल बादशाह को केंद्रीय नेतृत्व के रूप में स्वीकार करना यह बतलाता है कि यह एक राष्ट्रीय योजना के तहत किया गया विद्रोह था। कोई इन योजनाओं की कमियों और तारीखों के अंतराल की समीक्षा कर सकता है, लेकिन यह तो तय है कि इस दौर में हर अंचल से कुछ बड़े नायक उभर कर सामने आए और वे छोटी जमीनों से उभरे। जो बड़ी-बड़ी रियासतें थीं, वे तो अंग्रेजों के साथ थीं।

अंग्रेजों ने भी भांपा कि 10 मई की बगावत के बाद कुंवर सिंह दम साधे तीन महीने तक प्रतीक्षा करते रहे। एक बड़े नेता की तरह वे इंतजार करते रहे थे समय का। इसके पीछे बड़े रणनीतिक योद्धा का दिमाग कर रहा था। थे वे निपढ़ निरक्षर, एकाउंटेन्सी नहीं जानते थे। बिजनेस करना नहीं जानते थे। लेकिन बाकी जो-जो वे जानते थे वह देखने लायक है। असल में 25 जुलाई को जब विद्रोह हुआ तो नदी में बाढ़ आई हुई थी और गरमी भी बेतहाशा थी। यह समय पूरी योजना के साथ चुना गया था। कुछ लोगों ने कहा है कि अंग्रेज बड़े अनुशासित थे, पढ़े-लिखे योद्धा थे, 150-150 साल की लड़ाई और कई देशों की लड़ाई का अनुभव उनके पास था! लेकिन कैप्टन डनवर मना करने के बावजूद चल पड़ा रात में ही। दूसरी ओर जगह-जगह बागीचों और बालू के ढूहों में बगावती फौजें तैनात की गई थीं। आंकड़े दिए हैं के.के. दत्त और दूसरे इतिहासकारों ने कि सुबह होने तक अंग्रेजी फौज का बहुत छोटा हिस्सा ही भागने में कामयाब हो पाया था। खुद कैप्टन डनवर मारा गया उसमें। बहरहाल, देखें तो लड़ाई बराबरी की नहीं थी। क्योंकि अंग्रेजों के पास तोपें थीं। वैसे जगदीशपुर में प्रमाण मिले हैं कि कुंवर सिंह ने कुछ छोटे कारखाने कायम किए थे हथियार बनाने के लिए। 

एक बहुत भद्दा आरोप लगता है कि कुंवर सिंह के साथ सिर्फ राजपूत थे। पोस्टमार्डनिज्म के असर में आजकल स्वाधीनता संग्राम की तरह-तरह की व्याख्याएं हो रही हैं, खोज-खोज कर जातियां निकाली जा रही हैं। कुंवर सिंह राजपूत समुदाय में पैदा हुए थे, इसलिए यह आरोप लगाना कि उनके साथ केवल राजपूत थे, इतिहास के साथ अन्याय है। उन्होंने नेताओं का चयन जिस तरह किया उससे पता चलता है कि उनके भीतर एक राष्ट्रीय और सांगठनिक प्रतिभा काम कर रही थी। मैकू मल्लाह जल सेना के प्रधान थे और इसीलिए अंगे्रेजों ने उन्हें बाद में मौत के घाट उतार दिया। उन्होंने इब्राहिम खान को बिहिया डिवीजन, मैंगर सिंह को गहमर तथा रंजीत यादव को चौंगाई डिवीजन का प्रधान बनाया था। जिस तरह उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता और तमाम दलित-पिछड़े समुदायों के अपने सहयोगियों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष किया, वह गौरतलब है। उनकी सांगठनिक प्रतिभा की तुलना सिर्फ अकबर से की जा सकती है। बेशक अंग्रेजों के पास तोपखाना था, आधुनिक हथियार था, बहुत बड़ी ताकत थी और लगातार कुमुक पहुंच रही थी, लेकिन कुंवर सिंह ने भी जबर्दस्त तैयारी की थी। उन्होंने अपने फौज को खिलाने के लिए 6 माह की रसद जमा कर रखी थी, जिसे बाद में जगदीशपुर छोड़ते वक्त उन्होंने जला दिया। 

जगदीशपुर छोड़ने के बाद उनको अपनी रणनीतिक प्रतिभा दिखाने का असली मौका मिला। कुंवर सिंह जब जगदीशपुर से बाहर निकले तो पूरे भारत का नेता बनकर निकले। उन्होंने बड़ी योजना पर काम करना शुरू किया। सासाराम, जमानिया, गाजीपुर और मिर्जापुर की पहाड़ियों से होते हुए वे रीवां पहुंचे। रीवां में उनकी रिश्तेदारी थी। मगर उनके रिश्तेदार ने उनकी मदद नहीं की। रीवां से उन्होंने बांदा की ओर रुख किया। वहां एक बड़ी योजना बनी कि तात्यां टोपे, नाना साहब और कुंवर सिंह की सम्मिलित शक्ति अंग्रेजों पर हमला करेंगी। कुंवर सिंह के फैजाबाद, अयोध्या जाने के भी प्रमाण मिलते हैं। जिधर-जिधर से उनकी फौज गुजरी उधर-उधर बगावत की लहर फैलती गई। बुंदेलखंड के नागौर, जबलपुर, सागर आदि इलाकों पर भी इस ऐतिहासिक अभियान का प्रभाव पड़ा। खासकर लोकगीतों में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, अतरौलिया और मंदौरी की लड़ाई का जबर्दस्त जिक्र मिलता है। आजमगढ़ की लड़ाई का क्या जज्बा था, इसका अनुमान इससे मिल सकता है कि एक खास चौकी पर जब अंग्रेजों ने कब्जा किया तो पाया कि घर के अंदर तीन-तीन फीट तक लाशों का अंबार लगा है यानी हिंदुस्तानी सिपाहियों ने तोपों के गोलों के आगे उड़ जाना स्वीकार किया, लेकिन भागे नहीं। आजमगढ़ पर बाकायदा उन्होंने विजय हासिल की और कुछ दिन तक शासन किया। वहां हरेकृष्ण सिंह के नेतृत्व मे कुछ टुकड़ियों को छोड़कर वे बलिया की सीमा पर नगरा पहुंचे और फिर नगरा से सिकंदरपुर होते हुए अपने ननिहाल सहतवार पहुंचे। एकाएक दोआबा का वह क्षेत्र बगावती ज्वार की चपेट में आ गया। स्थानीय ताकतें किस तरह संगठित हुईं इसकी मिसाल सहतवार की एक घटना से मिलती है। वहां अरहर के खेत में छिपे किसानों ने, जिन्हें किसी छापामार लड़ाई का अनुभव नहीं था, न कोई प्रशिक्षण था, भाला-गड़ासा जैसे देहाती हथियारों से अंग्रेजों की एक पूरी टुकड़ी को खत्म कर दिया। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि अगर आजमगढ़ से सीधे उन्होंने बनारस पर हमला बोल दिया होता, तो पूरा पूर्वांचल उनके कब्जे में होता और यह बहुत बड़ी घटना होती। लेकिन वे फिर से जगदीशपुर को अपने कब्जे में लेना चाहते थे, शायद लोगों को यह संदेश देना चाहते थे कि हम हारे नहीं हैं। बहरहाल, जिस तरह अंग्रेजी राज के नाक के नीचे से इतना लंबा ऐतिहासिक अभियान चलाते और अपनी फौजों को सुरक्षित रखते हुए वे वापस आए वह मामूली रणनीतिक प्रतिभा का कमाल नहीं है। बगैर अपार जनसमर्थन के यह संभव नहीं था। 

1857 की लड़ाई में एक से बढ़कर एक योद्धा थे, लेकिन इतना लंबा मार्च किसी ने नहीं किया। जब कुंवर सिंह ने देखा कि चारों ओर घेराबंदी है, तो अफवाह उड़ा दिया कि वे बलिया में हाथियों के जरिए गंगा पार करेंगे। अंग्रेजों ने अपनी ज्यादातर ताकत बलिया पर लगा दी और रातोंरात शिवपुर घाट से मल्लाहों के सहयोग से नावों के जरिए उनकी पूरी सेना पार हो गई। अंग्रेज आखिर में पहुंचे और उन पर हमला किया जिसमें वे जख्मी हो गए, अपने बाजू को काटना पड़ा। लेकिन उनकी फौज ने ली ग्रांट को जबर्दस्त शिकस्त देते हुए दुबारा 23 अप्रैल 1858 को जगदीशपुर पर अपना विजय पताका फहरा दिया। ली ग्रांट इस लड़ाई में मारा गया। अंग्रेजों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। कुंवर सिंह तो 26 अप्रैल तक ही जीवित रह पाए, मगर उसके बाद भी अमर सिंह के नेतृत्व में लड़ाई जारी रही। मार्क्स और एंगेल्स ने कुँवर सिंह और अमर सिंह की छापामार लड़ाइयों पर बहुत लंबी-लंबी टिप्पणियां लिखी हैं। अमर सिंह की छापामार लड़ाइयों से परेशान होकर अंग्रेजों ने आरा से जगदीशपुर तक का सारा जंगल कटवा दिया। अंग्रेज अमर सिंह को बेहद खतरनाक समझते थे। छापामार लड़ाइयों का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि जिस लुगार्ड के हाथ में नया नेतृत्व आया था, उसने इस्तीफा दे दिया। साल भर की लड़ाई में अंग्रेजों के दो सेनानायक मारे गए और एक ने इस्तीफा दे दिया। हमारे योद्धा अंत-अंत तक डटे रहे। वे फांसी पर झूल गए या मारे गए, पर पीछे नहीं हटे।

जो लोग कहते हैं कि लड़ाई योजनाबद्ध नहीं थी या विद्रोही पिछड़ी चेतना के लोग थे या ये अनुशासनहीन भीड़ के नेता थे या कि इनमें कोई राजनीतिक प्रतिभा नहीं थी, उनकी सारी व्याख्याएं ओछी साबित होती हैं। वास्तव में सारी सीमाओं के बावजूद एक सीमित शक्ति के भरोसे एक राष्ट्रीय नेतृत्व कैसे विकसित होता है, इसकी व्याख्या हम जरूर कर सकते हैं। मुख्य बात यह है कि कुंवर सिंह और अमर सिंह केवल जगदीशपुर, केवल आरा या बिहार के नहीं थे। वे पूरे भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नायकों में हैं। उन्हें इसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। 

1857 असफल हो गया। लेकिन वह एक ‘भव्य असफलता’ है। इस असफलता में एक ट्रैजिक सौंदर्य है, जो बराबर प्रेरणा देता है। इस प्रेरणा में ही विजय निहित है। अंग्रेज जो लोकतंत्र और न्याय के प्रहरी बनते हैं जितना क्रूर व्यवहार कैदियों और क्रांतिकारियों के साथ उन्होंने किया, उसकी इतिहास में कोई मिसाल नहीं मिलती। एक-एक पेड़ उनके अत्याचार का साक्षी है, जिन पर लोगों को फांसी दी गई। एक नया भारत जो उभर रहा था अंग्रेजों ने उसे पीछे धकेलने का काम किया। सामंतवाद जो खत्म हो रहा था, उसे हरा-भरा करने और उसकी जड़ों में पानी देने का काम अंग्रेजी राज ने किया। उसने हिंदू-मुसलमानों को एक नहीं रहने दिया। उसके बाद बड़े पैमाने पर दंगे हुए। 1857 के बाद जो साहित्य आया, उसमें क्रांति की अनुगूंज इसलिए कम मिलती है कि मध्यवर्ग अंग्रेजों से प्रतिरोध के लिए तैयार नहीं था। लोकगीत ही उस क्रांति के सच्चे दर्पण हैं। इन लोकगीतों में वीर कुंवर सिंह और अमर सिंह की गाथा को बड़े प्यार से जगह दी गई है। 

(1857 की 150 वीं वर्षगांठ और 23 अप्रैल 2007 को विजयोत्सव के मौके पर वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा में दिए गए व्याख्यान का संक्षिप्त और संपादित अंश)

Sunday, December 18, 2016

का. विनोद मिश्र स्मृति दिवस पर नोटबंदी के खिलाफ जनप्रतिरोध का ऐलान

मजदूर-किसानों, छात्र-नौजवानों, महिलाओं, बच्चे-बूढ़ों के मुंह का निवाला छीन रही मोदी सरकार :  का. स्वदेश
क्रांतिकारी विपक्ष के निर्माण का का. विनोद मिश्र का नारा नए सिरे से प्रासंगिक हो उठा है 

18 दिसंबर को भाकपा-माले के पूर्व महासचिव का. विनोद मिश्र की अठारहवीं बरसी के अवसर पर भाकपा-माले भोजपुर जिला कार्यालय समेत तमाम प्रखंड मुुख्यालयों पर ‘संकल्प दिवस’ मनाया गया, साथ ही पंचायतों में पार्टी सदस्यों और आम जनता की बैठकें की गई, जिनमें मोदी सरकार द्वारा पैदा की गई आर्थिक आपातकाल की दशा और कारपोरेट फासीवाद के खिलाफ ताकतवर जनप्रतिरोध खड़ा करने का संकल्प लिया गया।

इस अवसर पर सहार में भाकपा-माले पोलित ब्यूरो सदस्य का. स्वदेश भट्टाचार्य ने कहा कि देश में आपातकाल जैसा माहौल पैदा हो गया है, मोदी सरकार ने नोटबंदी के फैसले से मजदूर-किसानों, छात्र-नौजवानों, महिलाओं, बच्चे-बूढ़ों के मुंह का निवाला छीनने का काम किया है। इसके खिलाफ भाकपा-माले कार्यकर्ता मोदी हटाओ, रोटी बचाओ नारे के साथ ‘पोल खोल हल्ला बोल’ अभियान चलाएंगे और जनता को गोलबंद करेंगे। 23 दिसंबर को नोटबंदी के खिलाफ सहार प्रखंड पर भाकपा-माले की ओर से आक्रोशपूर्ण प्रदर्शन किया जाएगा। सहार में माले की वरिष्ठ महिला नेता का. मीरा जी, भोजपुर जिला सचिव का. जवाहरलाल सिंह, प्रखंड सचिव का. रमेश जी, इनौस के राज्य अध्यक्ष मनोज मंजिल, सहार प्रखंड के प्रमुख मदन जी, रामदत्त जी, लाल जी, आइसा नेता संदीप कुमार भी मौजूद थे। 

भोजपुर जिला कार्यालय में आयोजित ‘संकल्प सभा’ को संबोधित करते हुए समकालीन जनमत के संपादक सुधीर सुमन ने कहा कि सत्तर के दशक में भोजपुर में भीषण शासकवर्गीय दमन के दौरान कई महत्वपूर्ण कामरेडों की शहादत की राख से का. विनोद मिश्र ने अपने नेतृत्व में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन को न केवल पुनर्जीवित किया, बल्कि उसका पूरे देश में विस्तार किया। पूंजीवादी लूट, भ्रष्टाचार, कमीशनखोरी में संलिप्त शासकवर्गीय पक्ष-विपक्ष की राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ उन्होंने जनसंघर्षों और गरीब-मेहनतकश जनता की ताकत पर आधारित एक जनराजनीतिक पार्टी का निर्माण किया। आज इस देश की हालत यह है कि कल तक जो किसान, मजदूर और छोटे व्यवसायी क्रमशः भूमि अधिग्रहरण, श्रमविरोधी कानूनों और एफडीआई का विरोध कर रहे थे, उन्हें नोटबंदी के जरिए मोदी सरकार ने बुरी तरह तबाह कर दिया है। नौजवानों के रोजगार की इस सरकार को कोई चिंता नहीं है। यह सारे चुनावी वायदों से मुकर गई है। यह स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है कि नोटबंदी इस कारपोरेटपरस्त सरकार द्वारा जनता पर किया गया सीधा हमला है। लोग कतारों में अपना ही पैसा निकालने की कोशिश में मर रहे हैं। मरने वाले सिर्फ गरीब-मजदूर-महिला ही नहीं, नौजवान और फौजी भी हैं, वहीं भाजपा-कांग्रेस दोनों पार्टियों में चंदे मंे जमा पुराने नोट को काला धन न मानने को लेकर सहमति बन गई है। जब विपक्ष की ज्यादातर पार्टियां दिखावटी विरोध करके चुप हो गई हैं, ऐसे समय में का. विनोद मिश्र द्वारा क्रांतिकारी विपक्ष के निर्माण का नारा नए सिरे से प्रासंगिक हो उठा है। वाम महासंघ भी उनका सपना था। बेशक नोटबंदी के जरिए पैदा आर्थिक आपातकाल, महंगाई, बेरोजगारी, खेती-उद्योग धंधों और छोटे व्यवसाय की तबाही के खिलाफ वामपंथी दलों के एकताबद्ध कार्रवाइयों में उतरने का यही माकूल वक्त है। 

संकल्प सभा को संबोधित करते हुए जिला स्थाई समिति सदस्य का. जितेंद्र कुमार ने कहा कि मोदी सरकार बात तो गरीबों की करती है, पर काम अमीरों के लिए करती है। नोटबंदी ने इस तथ्य को और भी स्पष्ट कर दिया है। सरकार अपने कदम को जायद ठहराने के लिए लगातार प्रचार कर रही है, हमें भी उसके प्रचार के खिलाफ जमीनी स्तर तक प्रचार संगठित करना होगा और उनका पर्दाफाश करना होगा। 

रिक्शा ठेला टेंपू चालक संघ के नेता और वार्ड पार्षद का. गोपाल प्रसाद ने कहा कि नोटबंदी से सबसे अधिक नुकसान मजदूर वर्ग को हुआ है। कालाबाजारियों ने बट्टे पर उनके नोट बदले। लघु उद्योग बुरी तरह तबाह हुआ है। निर्माण क्षेत्र में भी काम कम हो गए हैं। भुखमरी की स्थिति बनती जा रही है। 

एक्टू नेता का. यदुनंदन चौधरी ने कहा कि मोदी पूंजीपतियों के सेवक हैं, पूंजीवाद के भीतर जनकल्याण की भावना हो ही नहीं सकती। नोटबंदी से परेशान और उसके कारण मर रहे लोगों के प्रति जिस बेरहमी का प्रदर्शन इस सरकार ने किया है, वह इसका सबूूत है। लेकिन एक झूठ को सौ बार कहा जाए तो वह वह सच लगने लगता है, हिटलर के मंत्री गोयबल्स की उसी राह पर चलते हुए आज भारत के सत्ताधारी गोयबल्स मोदी के बारे में गलतफहमी फैला रहे हैं। 

ऐपवा नेता संगीता जी ने कहा कि नोटबंदी का हमला महिलाओं, छात्र-नौजवानों, बेरोजगारों- सबको झेलना पड़ रहा है। मोदी ने जो भ्रम फैलाया था वह टूटने लगा है। 

जिला कमिटी सदस्य का. राजनाथ राम ने कहा कि कालाधन पर अंकुश लगाने के नाम पर नोटबंदी की गई थी, पर जनता के पास जो रकम थी, उसका ज्यादातर हिस्सा बैंकों में जमा हो चुका है, खुद आरबीआई ने यह स्वीकार किया है। जाहिर है इस सरकार का मकसद काला धन पकड़ने के बजाए जनता की मेहनत की कमाई को बैंकों में जमा करवाना था। दलितों-अल्पसंख्यकों की हत्याओं के लिए जिम्मेवार मोदी की सरकार की फासिस्ट प्रवृत्ति को का. विनोद मिश्र ने पहले ही चिह्नित कर दिया था। मोदी सरकार जब से आई है, तबसे दलितों-अल्पसंख्यकों पर हिंदुत्ववादियों के हमले बढ़े हैं, काॅरपोरेट कंपनियों के स्वार्थ को पूरा करने के लिए सरकार आदिवासियांे, किसानों, छात्रों और बुद्धिजीवियों सबके दमन पर उतारू है। काॅरपोरेट ताकतों के पक्ष में की गई खूनी नोटबंदी भी इस सरकार के फासीवादी चरित्र को ही उजागर करती है। 

आइसा के जिला अध्यक्ष का. सबीर ने कहा कि नोटबंदी की घोषणा के अगले ही दिन परीक्षा थी, पर छात्र परीक्षा की तैयारी करने के बजाए कतार में लगने को विवश हो गए। इस नोटबंदी ने मजदूर-किसानों को बेटों को, जो गांव से आकर शहरों में पढ़ाई करते हैं, भारी मुश्किल में डाल दिया है। भाजपाई छात्र संगठन नोटबंदी को लेकर लोगों के बीच भ्रम फैला रहा है। इस तरह की कोशिशों का भी जवाब देना होगा। 

संकल्प दिवस पर हुई सभा का संचालन आरा नगर कमेटी के सचिव का. दिलराज प्रीतम ने किया। उन्होंने आरा प्रखंड मुख्यालय पर 22 दिसंबर को नोटबंदी के खिलाफ किए जा रहे प्रदर्शन को व्यापक जनभागीदारी के साथ सफल बनाने की अपील भी की। 

संकल्प दिवस की शुरुआत का. विनोद मिश्र की स्मृति में एक मिनट का मौन से हुई। फिर उनकी तस्वीर पर पुष्पांजलि अर्पित की गई। इस मौके पर जिला कमिटी सदस्य का. अशोक कुमार सिंह भी मंच पर मौजूद थे। इस अवसर पर आरा शहर के अधिकांश सक्रिय कामरेड और विभिन्न जनसंगठनों के जिम्मेवार साथी मौजूद थे।