Wednesday, June 17, 2015

परम्परा में जो कुछ सुंदर है हम उसे जिएंगे

(साथी सुनील सरीन के कन्धों पर युवानीति की जिम्मेवारी थी. उनका घर संस्कृतिकर्मियों और भोजपुर के वामपंथी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं का एक अड्डा था. उस वक्त नाटकों में काम करना शुरू नहीं किया था. लेकिन आरा शहर के जिस मुहल्ले में उनका घर है वहीँ मेरा ननिहाल है, लिहाजा बचपन से ही उनके घर आना जाना था. उनकी शादी उस वक्त पूरे मुहल्ले में चर्चा का विषय थी. शादी के बाद अनुपमा भाभी ने नुक्कड़ नाटकों में अभिनय किया, नाटक टीम के साथ गांव दौरे में भी गयीं. परम्परागत रीति रिवाज  से अलग हट कर जो उनकी शादी हुई थी वह तो महत्वपूर्ण था ही, हमारे लिए उससे भी आगे बढ़ा हुआ कदम था अनुपमा भाभी का नाटकों में अभिनय. उस वक्त युवानीति से कई लड़कियां जुडी थीं. सुनील भइया और अनुपमा भाभी रोजी-रोटी के चक्कर में आरा से दूर चले गए. अब भी आरा शहर के साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में स्त्रियों की मौजूदगी बहुत ही कम है. जब भी मैं इस बारे में सोचता हूँ तो मुझे आरा के सांस्कृतिक जगत की इस जोड़ी की याद आती है. इन्होंने वैवाहिक जीवन के 25 साल पूरे कर लिए हैं. उन्हें हार्दिक बधाई. आइए उस शादी को याद करें, खुद सुनील सरीन की जुबानी- सुधीर सुमन) 



शपथग्रहण 
माँ पिताजी के साथ 
25 साल पहले। 17 जून को पटना जिले के मोरियावां गांव में हम जीवन-साथी बने थे। भीषण गर्मी थी। छत पर खुले में दरियां व बेडशीट बिछा दिए गए थे। अनु के रिश्तेदार, संगी-साथी और मेरे साथियों-रिश्तेदारों को मिलाकर 150 से अधिक लोग जुटे थे। एक नये किस्म का विवाह हो रहा है– यह देखने के लिए अगल-बगल की छतों पर भी गांव भर के लोग आ जुटे थे। पड़ोसी भी अपने अपने तरीके से इस शादी में हिस्सेदार हो रहे थे। बगल की छत पर बैठी कुछ महिलाएं बारातियों के स्वागत में गीत मतलब गारी गा रही थीं।

न बैंड बाजा न माड़ो, न डंडा न चौका। कोई फिजुलखर्ची नहीं। एक पेट्रोमेक्स जला हुआ था रोशनी के लिए। झावेंदार ईटों से बने पड़ोस की दीवार से सटा कर लकड़ी की दो कुर्सियां लगा दी गई थीं। कुर्सियों को चादर से ढक दिया गया था। मुझे याद रहा है– मेरी कुर्सी की एक बांह हिल रही थी।

अनु शादी के जोड़े में सजी थी। मेरे लिए भी साथी एश्तियाक ने भाड़े पर एक शेरवानी जुटा दिया था 25 रु. के किराए पर। मेरी बहनों ने पगड़ी और लखनवी जूते खरीद दिए थे।

शपथपत्र पर हस्ताक्षर 
बारात हाईस्कूल के हाते में ठहरी थी। हमारे पड़ोसी पंडित रामसुभग मिश्र 'रासू' साथ गए थे। एक मुल्ला दोस्त भी थे। मेरे कैथोलिक विद्यालय का एक सहपाठी भी था जो पादरी बनने वाला था। अनु के पिताजी आरपी वर्मा ने इस शादी के लिए अपने एक परिचित भंते (बौद्ध भिक्षुक) को आमंत्रित किया था। अर्जक संघ के लोग भी थे। जन संस्कृति मंच के हमारे
कई साथी थे। शादी किस तरह से हो इसकी चर्चा जनवासे में चल रही थी। लगभग सबने ही यह बताया कि विवाह के मुख्य रूप से चार चरण हैं। पहले वर-वधु का परिचय होता है, फिर शादी की कुछ विधियां होती हैं। शपथ-ग्रहण कराया जाता है और अंत में सभी आशीर्वाद देते हैं। हमारी शादी में इस कार्य का बीड़ा उठाया था पत्रकार-कथाकार रामेश्वर उपाध्याय ने।

नैनीताल में 
पच्चीस  वर्षों बाद 
शादी के दिन की कुछ तसवीरें हमने सम्भाल रखी हैं। इन 25 वर्षो में हमने साथ-साथ कई मुकाम तय किए। आरा, बोकारो, वेरावल(गुजरात), दमण, मुम्बई और अब दिल्ली में। हमने बहुत कुछ हासिल किया। कई खुशियां बटोरीं। दुख के पल भी आये। अभी बहुत कुछ रह गया है जिसे साथ मिलकर पाना है। कई सपने देखे हैं हमने। एक बेहतर समाज, एक बेहतर दुनिया का सपना...। नई दुनिया बनाने की जंग के हम भी राही हैं। चलते रहेंगे ... और जिंदगी के गीत गाते रहेंगे।