Thursday, September 17, 2015

लसाढ़ी में शहीद मेला संपन्न



शहीदों ने जिस आजादी के लिए शहादत दी, उसके लिए आज भी लड़ाई जारी है


स्वाधीनता आंदोलन से गद्दारी करने वाले आज भारत की जनता और लोकतंत्र से गद्दारी कर रहे हैं

सत्ताधारी गठबंधनों को लसाढ़ी के शहीदों के मूल्यों और सपनों से कुछ लेना-देना नहीं



‘‘लसाढ़ी का शहीद स्मारक किसी पूंजीपति, अपराधी या माफिया के सहयोग से नहीं, बल्कि जनता के सहयोग और का. रामनरेश राम के विधायक फंड से बना था। 1857 के जनविद्रोह और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भोजपुर की सपूतों ने जनप्रतिरोध की जो मिसाल पेश की, रामनरेश राम उसी की कड़ी थे, इसीलिए लसाढ़ी, ढकनी, चासी के जो किसान अंग्रेजों के जुल्म और अन्याय के राज के खिलाफ लड़ते हुए 15 सितंबर 1942 को शहीद हुए थे, उनके इतिहास को सामने लाने का काम उन्होंने ही किया।’’ लसाढ़ी में आयोजित सभा को संबोधित करते हुए मुख्य वक्ता इंकलाबी नौजवान सभा के राज्य अध्यक्ष राजू यादव ने यह कहा। हर वर्ष की तरह यहां लसाढ़ी के शहीदों की याद में भाकपा-माले द्वारा शहीद मेला का आयोजन किया गया था। 

जबसे यह स्मारक बना है, एकाध वर्ष ही ऐसा रहा होगा, जब इस रोज मैं भोजपुर से बाहर रहा होऊंगा। अक्सर लसाढ़ी के शहीद मेला में मैं पहुंच ही जाता हूं। इस बार आरा पहुंचा, तो सूचना मिली कि चुनाव आचार संहिता और जानबूझकर जटिलता पैदा करके भोजपुर जिला प्रशासन शहीद मेला के आयोजन की स्वीकृति न देने की साजिश रच रहा है। वैसे भी थानों की पुलिस को तो चुनावी आचार संहिता के नियम-कायदों और उसकी बारीकियों से भी कुछ लेना-देना नहीं होता। उनके हाथ तो एक ऐसा हथियार लग जाता है, जिससे वे ग्रामीण इलाके में सत्ताधारी वर्ग की राजनीति के इशारे पर राजनीतिक प्रचार में व्यवधान खड़ा करते हैं। लेकिन साथी अड़ गए थे कि आयोजन की प्रशासनिक स्वीकृति के लिए जो भी नियम कायदा है, उस पर अमल किया गया है, अगर प्रशासन इजाजत न देगा, तब भी शहीद मेला लगेगा, उसको आचार संहिता उल्लंघन का मामला बनाना है, तो बनाए। अंततः प्रशासन को झुकना पड़ा। 

दरअसल 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय भोजपुर में आंदोलनात्मक गतिविधियां बहुत तेज थीं, आंदोलन के दमन के लिए ही 15 सितंबर को ब्रिटिश सेना के बलूची रेजिमेंट के सैनिकों ने लसाढ़ी पहुंची थी। लसाढ़ी, चासी और ढकनी नामक गांवों के किसान परंपरागत हथियारों के साथ उनका मुकाबला करने चल निकल पड़े थे। इस लड़ाई में 11 किसान और 1 महिला अकली देवी शहीद हुए थे। आजादी के वर्षों बाद तक इन शहीदों की याद किसी को नहीं आई, तो इसलिए भी नहीं आई, क्योंकि आजाद भारत में सरकार पुलिस-फौज के बल पर ही शासन करने की आदी थी। परंपरागत हथियारों के साथ सुविधासंपन्न सत्ताधारी फौज को चुनौती देने वाले इन किसानों के इतिहास पर धूल जमने देना ही उनके हित में था। लेकिन भावना कभी मरती नहीं। 1942 में कुछ ही दूर एकवारी गांव के एक किशोर ने उस फायरिंग की आवाज सुनी थी, जिसमें बहादुर किसान मारे गए थे। वे थे रामनरेश राम। बड़े होकर एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट के बतौर उन्होंने समाज और सत्ता को बदलने के संघर्ष का नेतृत्व किया। सत्तर के सामंतवाद विरोधी किसान संघर्ष के दौरान लसाढ़ी के किसानों के प्रतिरोध की परंपरा को उन्होंने बुलंदियों पर पहुंचाया। जो जनप्रतिनिधि हो वह किसानों और मजदूरों के हित में काम करे, उसकी बर्बादी और दमन के लिए जिम्मेवार व्यवस्था का सहयोगी न बने, इसी सपने के साथ तो 1967 में कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में सहार विधानसभा के लिए चुनाव लड़ रहे थे। लेकिन सामंती ताकतों को उनकी जीत मंजूर न थी। मुखिया के बतौर अपनी जनपक्षधर कार्यशैली की वजह से वे काफी लोकप्रिय थे। सामंतों ने हार के भय से उनके साथी जगदीश मास्टर पर जानलेवा हमला किया। इसके बाद ही उनके हथियारों का जवाब हथियार से देने के दौर की शुरुआत हुई। सामंती आधारों पर टिकी सरकारों और उनके पुलिस-फौज ने 1942 के किसानों की तरह ही जगदीश मास्टर, रामेश्वर अहीर, बूटन राम समेत कई नेतृत्वकारियों की हत्या करके सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की इस लड़ाई को कुचल देने का सपना देखा। लेकिन भूमिगत रामनरेश राम ने सामाजिक बदलाव और राजनीतिक दावेदारी की लड़ाई को जारी रखा। 28 वर्षों बाद गरीब-मेहनतकश जनता के प्रतिनिधि के रूप में वे बिहार विधानसभा में दाखिल हुए। विधायक के तौर पर उन्होंने 1942 में लसाढ़ी में शहीद हुए किसानों का स्मारक बनाने का निर्णय लिया। सत्ताधारी राजद के लोग कटाछ करते रहे कि रामनरेश राम ‘गोईंठा में घी सुखा रहे हैं’, लेकिन रामनरेश राम इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट थे कि वे वर्तमान और भविष्य की लड़ाइयों के लिए एक प्रेरणा स्थल का निर्माण कर रहे हैं। 

पिछले कुछ सालों से जिला प्रशासन भी भारी लाव-लश्कर के साथ इन शहीदों के स्मारक पर फूल माला चढ़ाने पहुंचता है। सरकार के मंत्री भी होते हैं और तमाम सत्ताधारी दलों के छोटे-बड़े नेता भी। लेकिन वे सिर्फ रस्म अदायगी के लिए पहुंचते हैं और प्रायः इस मौके पर ग्रामीणों द्वारा किसी मुद्दे से संबंधित मांग से बचने या हवाई वादे करके जल्दी खिसकने के चक्कर में रहते हैं। स्मारक निर्माण में का. रामनरेश राम की भूमिका को भूले से भी याद नहीं किया जाता, लेकिन का. रामनरेश राम ने शहीद मेला आयोजित करने की जिस परंपरा की शुरुआत की थी, वह जारी है और उसमें हर साल सामयिक राजनीतिक-सामाजिक चुनौतियों पर गंभीर चर्चा होती है। इस साल भी शहीद मेला में भाकपा-माले ने संकल्प सभा का आयोजन किया। संचालक उपेंद्र यादव ने कहा कि यह आयोजन कोई औपचारिकता नहीं है। शहीदों ने जिस आजादी के लिए शहादत दी, उसके लिए आज भी लड़ाई जारी है। जब तक गरीबों का राज कायम नहीं होता, तब तक यह लड़ाई जारी रहेगी। अखिल भारतीय किसान सभा नेता विमल यादव ने कहा कि आजादी के वर्षों बाद किसी को इन शहीदों की सुध नहीं आई थी। कम्युनिस्ट क्रांतिकारी रामनरेश राम ने इन क्रांतिकारियों की सुध ली। 

स्मारक बनने के बाद यहां हर साल जिले के प्रशासनिक अधिकारी आने लगे हैं, पर उन्हें इन शहीदों की लड़ाई में भला क्यों दिलचस्पी होगी। इस बार तो अधिकारी 15 सितंबर की जगह 15 अगस्त ही रटते रहे। क्या करें बेचारे, स्वाधीनता आंदोलन को इन लोगों के जेहन में 15 अगस्त और 26 जनवरी तक ही सीमित रख दिया गया है। 
अपने देश मे जिस तरह की पार्टियों की सरकारें बन रही हैं, उनकी बेइंसाफी और जनविरोधी रवैये के खिलाफ खड़े होने वाले रीढ़दार अधिकारी भी बहुत कम नजर आते हैं। शासकवर्गीय पार्टियां उन्हें अपने एजेंट के बतौर इस्तेमाल करने की कोशिश करती हैं। चुनावों में तो यह और भी स्पष्ट दिखने लगता है। 

बिहार विधानसभा चुनाव करीब है, जाहिर है इसका असर इस बार वक्ताओं के वक्तव्य में दिखना ही था। मुख्य वक्ता का. राजू यादव ने कहा कि पिछले लोकसभा चुनाव में इस उम्मीद पर जनता ने भाजपा को वोट दिया था कि वह काला धन वापस लाएगी, हर व्यक्ति को पंद्रह लाख रुपये मिलेंगे, महंगाई और भ्रष्टाचार कम होगा। लेकिन यह सब जुमलेबाजी साबित हुआ। उन्होंने कहा कि भाजपा नेताओं का गद्दारी का इतिहास पुराना है। इन लोगों ने स्वाधीनता आंदोलन के साथ गद्दारी किया और आज भारत की जनता और लोकतंत्र के साथ गद्दारी कर रहे हैं। लसाढ़ी, ढकनी, चासी के लोगों ने ब्रिटिश हुकूमत से मुकाबला करने का रिकार्ड है, जबकि भाजपा नेताओं का रिकार्ड अंग्रेजों से माफी मांगने का है। 

राजू यादव ने कहा कि लालू और नीतीश भाजपा के खिलाफ प्रतीकात्मक लड़ाई लड़ रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि बिहार की जमीन में भाजपा को जड़ जमाने का मौका इन्होंने ही दिया। भाजपा यहां कहीं बाहर से नहीं आई है, बल्कि 1990 के बाद राजद-जद-यू के शासनकाल में सामंती ताकतों के समर्थन से ही उसे जगह मिली। 

माले जिला सचिव का. जवाहरलाल सिंह ने कहा कि लालू-नीतीश ने सामंती ताकतों का मनोबल बढ़ाया, भूमि सुधार और बंटाईदारी से मुकरते रहे। बिहार में भाकपा-माले पिछले पच्चीस वर्षों में लोगों की बुनियादी सुविधाओं, किसान, मजदूरों, नौजवानों की समस्याओं के समाधान और सामाजिक न्याय, बराबरी और तमाम लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए आंदोलन करती रही। लालू-नीतीश के शासन में आंदोलन के कारण माले नेताओं पर केस किया गया और सामंती ताकतों को तांडव मचाने की छूट दी जाती रही। लालू-नीतीश हमेशा सामंती ताकतों के पक्ष में खड़े रहे। ये भाजपा को जमीनी स्तर पर शिकस्त दे ही नहीं सकते। सच तो यह है कि भाजपा नेतृत्व वाला गठबंधन और महागठबंधन दोनों जनता का भरोसा खो चुके हैं। 

उन्होंने सवाल उठाया कि हाल में कोबरा पोस्ट के खुलासे में जब रणवीर सेना के कमांडरों ने जनसंहारों में अपनी संलिप्तता को कुबूल किया, तो लालू-नीतीश चुप क्यों रहे? जब किसानों के लिए धान की कीमत, सिंचाई, बिजली, शिक्षा, स्कूल आदि के आंदोलन करने वाले का. सतीश यादव की हत्या हुई तो लालू-नीतीश या राजद के किसी अधिकृत नेता ने गिरफ्तारी और सजा की मांग तो दूर, निंदा तक नहीं किया। उन्होंने कहा कि ये लोग भाजपा से कतई नहीं लड़ सकते। भाजपा जिस परिवर्तन की बात कर रही है, उसका मतलब है बर्बर सामंती वर्चस्व की वापसी, जिसका नमूना सैकड़ों गरीबों, महिलाओं और बच्चों की हत्या के दोषी ब्रह्मेश्वर सिंह की हत्या के बाद आरा से लेकर पटना तक मचे तांडव में लोग देख चुके हैं। 

आइसा के राज्य सचिव का. अजीत कुशवाहा ने कहा कि दोनों गठबंधन लोगों को एक दूसरे का डर दिखा रहे हैं, पर लसाढ़ी के शहीद जिन मूल्यों और सपनों के लिए शहीद हुए, उनसे इनका कुछ लेना-देना नहीं है। उन्होंने छात्रों को इन शहीदों का इतिहास पढ़ाए जाने की मांग की। 

अखिल भारतीय ग्रामीण खेत मजदूर सभा के जिला सचिव का. सिद्धनाथ राम ने कहा कि अंग्रेजों ने सोचा था कि लसाढ़ी के किसानों का कत्ल करके वे आजादी और स्वराज के सपने के कुचल देंगे, लेकिन वे विफल हुए। इसलिए शासकवर्ग जितनी भी नृशंसता पर उतारू हो जाए, सामंती समाज और पूंजीवादी समाज को एक दिन खत्म होना ही होगा। 

निर्मोही 
सभा को आइसा नेता रचना सिंह, आरा नगर कमेटी के सचिव का. दिलराज प्रीतम, आइसा, भोजपुर के अध्यक्ष का. शिवप्रकाश रंजन, संदेश प्रखंड कमेटी सदस्य का. धर्मेंद्र सिंह, चरपोखरी प्रखंड कमेटी सदस्य का. कैलाश पाठक ने भी संबोधित किया। जनकवि कृष्ण कुमार निर्मोही ने इस मौके पर का. सतीश यादव की याद में रचित एक गीत तथा कुछ चुनावी जनगीतों का गायन किया। सभा की अध्यक्षता का. उपेंद्र यादव ने की। 

इस मौके पर का. रघुवर पासवान, का. जितेंद्र कुमार, शहीद सतीश यादव की पत्नी उषा कुंवर, सबीर कुमार, शिला कुमारी, उपेंद्र पासवान, जीतन चौधरी, नीलम कुंवर, दसईं जी आदि मौजूद थे। 

इस स्मारक पर तिरंगा झंडा ही फहराया जाता है। यह बड़ा दिलचस्प है कि भाकपा-माले के नेता, कार्यकर्ता और समर्थक लाल झंडा लेकर यहां पहुंचते हैं और कोई वरिष्ठ कामरेड तिरंगा झंडा फहराते हैं। शहीदों के प्रति कम्युनिस्टों के सम्मान का यह भी एक उदाहरण है। इस बार झण्डात्तोलन कामरेड सिद्धनाथ राम ने किया।चुनावी आचार संहिता के कारण इस बार लोगों के हाथ मेें लाल झंडे नहीं थे, पर शहीदों के प्रति गहरा सम्मान और आज के दौर में आजादी, इंसाफ और समानता की लड़ाइयों को आगे बढ़ाने का संकल्प सबके चेहरे पर फहर रहा था। इस पर भला किसी आचार संहिता की पाबंदी कैसे लग सकती है!





 

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