Saturday, September 5, 2015

प्रो. एमएम कलबुर्गी की हत्या के खिलाफ आरा में प्रतिरोध मार्च



फासीवाद के खिलाफ सामूहिक प्रतिरोध संगठित करना होगा 

3 सितंबर को पटना में प्रो. एमएम कलबुर्गी की हत्या के खिलाफ प्रगतिशील-जनवादी संगठनों ने प्रतिरोध मार्च निकाला था। इसके अगले दिन देर शाम में हमने आरा में 5 सितंबर को प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, छात्र संगठन आइसा, नाट्य संस्था युवानीति और बिहार राज्य प्राथमिक शिक्षक संघ- गोपगुट की ओर से प्रतिरोध मार्च करने का निर्णय लिया। तैयारी के लिए कम समय मिला। शनिवार, कार्यालयों और काॅलेजों में छुट्टी के बावजूद करीब चालीस साहित्यकार, शिक्षक, संस्कृतिकर्मी, छात्र और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता प्रदर्शन में शामिल हुए।

आजकल हर तरह के आयोजन के लिए प्रशासन को सूचना देने का नियम बना दिया गया है। लेकिन हमारे पास इसके लिए समय बिल्कुल नहीं था। हम जनकवि भोलाजी के पान दूकान के पास जुटे। वे अब नहीं हैं, पर उनकी दूकान है, जहां बैठकर वे अक्सर मूर्तिपूजा करने वालों के समाजविरोधी आचरण की खबर लेते थे, किसी-किसी से जरूर उनकी बहस हुई, पर किसी ने उनको हत्या करने की कभी धमकी नहीं दी थी। वे होते तो जरूर मूर्तिपूजा, अंधविश्वास, अवैज्ञानिक सोच के खिलाफ वैचारिक संघर्ष करने वाले प्रो. कलबुर्गी की हत्या पर कुछ काव्यात्मक पंक्तियां जरूर सुनाते, जैसा कि उन्होंने अपने एक गीत में लिखा था- कवन हउवे देवी देवता कवन ह मलिकवा/ बतावे केहू हो, आज पूछता गरीबवा...माटी, पत्थर, धातु और कागज पर देखनी/ दिहनी बहुते कुछुवो न पइनी/ इ लोरवा इ लहूवा से बूझल पियसवा/ बतावे केहू हो आज पूछता गरीबवा। प्रतिवाद मार्च का बैनर भोलाजी के छोटे लड़के मंगल माही ने ही लिखा था। उसमें मैं एकाध संशोधन करवा रहा था, तभी बगल के थाने के एक पुलिसवाले को साथियों से कुछ पूछते देखा, शायद ‘प्रतिरोध मार्च’ के विषय के बारे में जानकर वह वहां से चला गया। 
फासीवाद हो बर्बाद, इंकलाब जिंदाबाद के जोशीले नारे के साथ मार्च की शुरुआत हुई। लेखक-बुद्धिजीवियों की हत्या क्यों, मोदी सरकार जवाब दो के नारे भी गूंजे। प्रतिरोध मार्च रेलवे स्टेशन परिसर में पहुंचकर सभा में तब्दील हो गया। सभा को संबोधित करते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के राज्य महासचिव प्रो. रवींद्रनाथ राय ने कहा कि देश में हिटलरशाही चल रही है। प्रो. कलबुर्गी, का. गोविंद पंसारे और डाॅ. नरेंद्र दाभोलकर जैसे महान शख्सियतों की हत्या की जा रही है और हत्यारों को पकड़ा नहीं जा रहा है। इन हत्यारों को संरक्षण देने वाले इंसानियत, विज्ञान और विकास के विरोधी हैं। वे जितनी भी हत्याएं कर लें, पर उनके खिलाफ वैचारिक लड़ाई जारी रहेगी। 

अस्वस्थता के कारण जलेस के राज्य अध्यक्ष डाॅ. नीरज सिंह प्रतिवाद मार्च में शामिल नहीं हो पाए, पर सभा के लिए उन्होंने अपना संदेश भेेजा था, जिसे कवि सुनील श्रीवास्तव ने पढ़ा। नीरज सिंह का मानना है कि प्रो. कलबुर्गी, का. गोविंद पंसारे और डाॅ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्याएं लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। इस देश में फासीवाद के तेज कदमों की आहट साफ तौर पर सुनाई पड़ने लगी है। सभी तरह के लोकतंत्रवादियों, समाजकर्मियों, साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों को इस खतरे को समझते हुए एक स्वर से इसके विरुद्ध सामूहिक प्रतिरोध संगठित करना चाहिए। 

शाम हो रही थी, युवा कवि हरेराम सिंह विक्रमगंज से आए थे, उनकी ट्रेन का समय हो चुका था, पर अपने गुस्से का इजहार उन्हें ज्यादा जरूरी लग रहा था। उन्होंने धर्म की आड़ में चलने वाले शोषण-उत्पीड़न और भेदभाव के अतीत और वर्तमान का जिक्र किया। आज के बाबाओं-महात्माओं के पास मौजूद अकूत संपदा पर सवाल उठाया और कहा कि किसान-मजदूरों को इनके और इनको संरक्षण देने वाली राजनीति के खिलाफ संघर्ष के लिए तैयार होना होगा। 

आइसा, बिहार की राज्य कार्यकारिणी सदस्य रचना ने कहा कि बुद्धिजीवियों की हत्या दरअसल उनकी सोच की हत्या की कोशिश है। आरएसएस राष्ट्रवाद के नाम पर धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता और जातिभेद को बढ़ावा दे रही है। इसी मकसद से वह पाठ्यक्रम में भी तब्दीली कर रही है। लेकिन उसके करतूत देश को ऐसे मुहाने पर ले जा रहे हैं, जहां उसके खिलाफ भारतीय जनता का एकताबद्ध प्रतिरोध होना अवश्यंभावी है। व्यक्ति की हत्या करके वे प्रगतिशील और विवेकवादी सोच की हत्या नहीं कर सकते।

जसम के राष्ट्रीय सहसचिव कवि जितेंद्र कुमार ने कहा कि धार्मिक-सामाजिक शोषण-उत्पीडन का विरोध किसी भी सच्चे लेखक का कर्तव्य है। अमेरिका तक में लेखक सरकारों की आलोचना करते हैं, पर उनकी हत्या इस तरह नहीं होती। लेकिन हमारे देश में सत्ता में ऐसी शक्तियां आई हैं, जो कहती हैं कि जो धार्मिक अंधविश्वास और मूर्तिपूजा का विरोध करेगा, उसकी हत्या करेंगी। प्रो. कलबुर्गी, का. पंसारे और डाॅ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्याएं एक पैटर्न पर की गई हैं। यही वे जनविरोधी ताकतें हैं, जो स्त्रियों की बराबरी और आजादी के विचार को बर्दाश्त नहीं करतीं। 

जसम के राष्ट्रीय पार्षद सुनील चौधरी ने कहा कि कारपोरेट और सांप्रदायिक शक्तियों के साथ गठजोड़ के बल पर मोदी की तानाशाही चल रही है। सिर्फ अभिव्यक्ति की आजादी ही नहीं, बल्कि आज जनता के सारे लोकतांत्रिक अधिकार भी खतरे में हैं। इसलिए इनके खिलाफ जनता की व्यापक एकजुटता जरूरी है। साहित्यकार, संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों को इसी प्रयास में लगना चाहिए। 



संचालन करते हुए मैंने इस ओर ध्यान दिलाया कि इस देश में धार्मिक सुधार, जातिगत समानता और सर्वधर्म सम्भाव की जो वैचारिक परंपरा रही है, आरएसएस उस पर सुनियोजित तरीके से हमले कर रही है। इसके साथ ही सामाजिक-सांप्रदायिक भेदभाव, उत्पीड़न, धार्मिक रूढ़िवाद और कट्टरता के खिलाफ भारत में आलोचना और प्रतिरोध की अपनी जो तर्कशील और विवेकवादी परंपरा रही है, वह उसे बर्दास्त नहीं है। एक ओर देश में निरंतर सांप्रदायिक विभाजन, विद्वेष और कत्लेआम को प्रोत्साहित करने वाले आरएसएस प्रमुख को जेड श्रेणी की सुरक्षा उपलब्ध कराना और दूसरी ओर प्रो. कलबुर्गी, का. गोविंद पंसारे और डाॅ. नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारों को खुला छोड़ देना, भारत के लोकतंत्र पर गंभीर सवाल खड़े करता है। सभा में महाराष्ट्र सरकार द्वारा जनप्रतिनिधियों- मेयर, विधायक, सांसद की आलोचना या विरोध करने वालों को देशद्रोही करार देने वाले फरमान की भी भर्त्सना की गई। 

सभा में मैंने प्रो. कलबुर्गी पर जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण के लेख के अंश भी पढ़े। उन्होंने लिखा है कि प्रो. कलबुर्गी कन्नड़ के ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने उस क्षेत्र के इतिहास को इतिहास के आधिकारिक विद्वानों से भी ज्यादा वैज्ञानिक ढंग से उद्घाटित किया। वे 12 वीं सदी के क्रांतिकारी संत बसवेश्वर के जीवन और दर्शन के श्रेष्ठ व्याख्याकार थे। बसवन्ना की ही तरह वे अपने विचारों के लिए ही जिए और मरे। लेकिन अपने तार्किक और वस्तुवादी दृष्टिकोण के कारण खुद लिंगायत धर्म-प्रतिष्ठान से भी उनका टकराव होता रहा। उन्होंने कन्नड़ साहित्य, इतिहास और संस्कृति से संबंधित शोधपरक निबंध लिखे जो मार्ग शृंखला की पुस्तकों में संकलित हैं। उसी शृंखला के पहले खंड से उन्हें दो अध्याय लिंगायत मठाधीशों के दबाव में वापस लेने पड़े थे। इसी शृंखला की पुस्तक ‘मार्ग 4’ पर उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड 2006 में मिला। सन 2012 में कर्नाटक सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने प्रो. कलबुर्गी को उस समिति का प्रमुख बनाया जिसे आदिलशाही वंश के अधीन रचे गए समस्त साहित्य को कन्नड़ में लाने का कार्यभार सौंपा गया। श्री कलबुर्गी आदिलशाही वंश को दक्कन के पठार में सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अलमबरदार मानते थे। 

प्रणय कृष्ण के अनुसार प्रो. कलबुर्गी वचन साहित्य के महान अध्येता थे। उनके संपादन में ही 450 से भी ज्यादा संतों की वाणियों को 15 खण्डों में ‘समग्र वचन सम्पुट’ नाम से संकलित करने की शुरुआत हुई थी। वे सवाल उठाते हैं कि क्या इन संतों ( शरण और शरणियों) ने वेदों पर व्यंग्य नहीं किया, कर्मकांडों का उपहास नहीं किया? क्या देवी-देवताओं की उपासना का तिरस्कार नहीं किया? उनकी ह्त्या के बाद भी जिस तरह विश्व हिन्दू परिषद् के प्रतिनिधि टी.वी. चैनल पर श्री कलबुर्गी पर देवी-देवताओं के तिरस्कार का आरोप लगा रहे थे और प्रकारांतर से लोगों के विक्षोभ के बहाने उनकी हत्या के औचित्य का संकेत कर रहे थे, क्या वे बसवन्ना, अक्क महादेवी, अल्लम प्रभू, चेन्न बसवन्ना, दोहर काकय्या, चेन्नैया, सिद्धरमा, गणचार और सैकड़ों शरणों और शरणियों से अतीत में जाकर बदला लेंगे? 

प्रणय कृष्ण ने इस ओर भी ध्यान दिलाया है कि प्रो. कलबुर्गी ने 103 पुस्तकें लिखीं और यह साबित किया कि आज के समय में भी मातृभाषाओं में चिंतन और शोध के उच्चतम शिखर छुए जा सकते हैं। वे मातृभाषाओं में शिक्षा देने के प्रबल हिमायती थे और हाल ही में उन्होंने कर्नाटक सरकार से मांग की थी कि वह केंद्र सरकार से अपनी भाषा नीति स्पष्ट करने को कहे।

प्रो.कुलबर्गी, कामरेड गोविंद पंसारे और डा. दाभोलकर की हत्याएं तथा पाकिस्तान और बांग्लादेश में परिपाटी से हट कर मुक्त विचार रखनेवालों की हत्याएं यह बताती हैं कि धर्मसत्ता, राजसत्ता, पितृसत्ता, पूंजी की सत्ता और वर्ण-व्यवस्था की सत्ता के व्यापक गठजोड़ के बावजूद सही और सच्चे विचारों से कानून, राजनीति और विचारधारा के स्तर पर निपट पाना इन ताकतों के लिए मुश्किल पड़ रहा है। इसीलिए व्यक्तिगत हत्याओं का सहारा लिया जा रहा है। नए भारत की खोज के लिए शहीद हुए इन अग्रजों के उसूलों और विचारों को आम जनता के बीच रचनात्मक प्रयासों से लोकप्रिय बनाना ही वह कार्यभार है जो उस लोकजागरण के लिए जरूरी है जिस के लिए वे जीवन भर संघर्षरत रहे और जो भारत के भविष्य की एकमात्र आशा है। 

इस मौके पर वरिष्ठ आलोचक रामनिहाल गुंजन, जनपथ संपादक अनंत कुमार सिंह, शिक्षक नेता अखिलेश, धर्म कुमार, रामकुमार नीरज, शायर इम्तयाज दानिश, कवि अरुण शीतांश, सुमन कुमार सिंह, ओमप्रकाश मिश्र, सुनील श्रीवास्तव, संतोष श्रेयांस, कवि-चित्रकार रविशंकर सिंह, रंगकर्मी राजू रंजन, आशुतोष पांडेय, विजय मेहता, रंगकर्मी सूर्यप्रकाश, पत्रकार प्रशांत, वार्ड पार्षद गोपाल प्रसाद, दीनानाथ सिंह, बालमुकुंद चौधरी, दिलराज प्रीतम, आइसा के संदीप, राकेश कुमार, श्याम सुंदर, रंजन, राजू राम, विक्की, अनिल, सुशील यादव आदि मौजूद थे। 

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