Sunday, October 25, 2015

भारतीय क्रांति के नायक का. रामनरेश राम

(जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण ने 2010 में कामरेड रामनरेश राम की अंतिम यात्रा में शामिल होने के बाद यह श्रद्धांजलि लेख लिखा था। आज कामरेड रामनरेश जी यानी पारस जी की पाँचवी बरसी है। भोजपुर की क्रांतिकारी जनता उन्हें याद कर रही है। इस मौके पर पेश है यह श्रद्धांजलि लेख, जो भारतीय क्रांति में उनकी ऐतिहासिक भूमिका का भी आकलन करता है )


आरा से एकवारी के लिए मोटरसाइकिल, चौपहियों से हजारों साथी का. रामनरेश राम की अंतिम यात्रा का आरंभ कर चुके थे। हर एकाध कि.मि. पर सैकड़ों लोग, शोकार्त्त किन्तु गगनभेदी नारों के साथ काफिले को रोक लेते। आंख भर देखते उनका निश्चल शरीर, जैसे कभी पहले उन्हें नहीं देखा हो। उन्हें फूल चढाते, अच्छी खासी तादाद में लोग सायकिल से लेकर मोटरसाइकिलों तक पर लाल झण्डा बांधे काफिले के साथ हो लेते। बहुत से लोग दौड़ते हुए उस वाहन के नज़दीक पहुंचते जिसपर वे शांत लेटे थे, कि कहीं आखीरी बार देखने से चूक न जाएं- आबाल-वृद्ध, महिलाएं। काफिला चले तो भी कुछ दूर तक, अनेक लोग दौड़ते चलते सामर्थ्य भर। याद आने लगे ऐसे ही दृश्य जब कामरेड वी.एम. की अंतिम यात्रा लेकर साथी चले थे, बनारस से आरा। इसी तरह भभुआ से आरा तक हर कुछ कि.मी. पर रुकते, रुद्ध-कंठ से नारे लगते, काफिले के साथ सामर्थ्य भर दौड़ते लोग। आरा से एकवारी तक अनेक जगह लोगों ने यात्रा पहुंचने की तैयारी में जनसभाएं शुरू कर रखी थीं। 

पारस जी ने गोरेे अंग्रेजों से लडते हुए अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। बाद को काले अंग्रेजों से अनथक संघर्ष करते उनका जीवन जारी रहा अंत तक। लगता है जैसे उन्हें लंबा जीवन मिला ही इसलिए कि किसी एक व्यक्ति के जीवन में हमारी क्रांतिकारी धारा की पूरी आनुवांशिकी, उसका प्रचण्ड शौर्य और अपार धैर्य, धक्कों के गहन शोक और बार-बार पुनर्नवा शक्ति की अविराम साधना, प्रतिरोध का सौंदर्य और उत्सर्ग का संगीत खुद को झलका सकें। बेशक, यह लंबा जीवन उन्होंने मौत से आंखें मिलाकर, उससे पंजा लडाकर जनता के लिए हासिल किया था. वह उन्हें सेंत में नहीं मिला था।

1857 के राष्ट्रीय विद्रोह से लेकर नक्सलबाड़ी की विरासत की जन-चेतना के अखंड प्रवाह का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है शाहाबाद की धरती और उसका प्रतिनिधि आख्यान है रामनरेश राम का जीवन-चरित्र। पारस जी का जीवन जनता के क्रांतिकारी आंदोलन की व्यापकता और गहराई, दोनों को प्रतीकित करता है। व्यापकता सिर्फ वर्तमान के भौगोलिक विस्तार में ही नहीं होती, वह विरासत के ऐतिहासिक काल-विस्तार में भी होती है. जो लोग महज पहले अर्थ में व्यापकता को देखते हैं, वे चाहते हैं कि हम अपने इतिहास को, अपनी पहचान को भूल जाएं। वे गहराई से काटकर व्यापकता को देखते हैं, इसलिए अधूरा और असंगत देखते हैं। सिर्फ पत्तियां गिनते हैं, जड की गहराई और तने की मुटाई नहीं देखते जहां से पत्तियों को भी जीवन-द्रव्य आता है। पारस जी का जीवन अपना इतिहास और अपनी पहचान भूलने के विरुद्ध, उससे विश्वासघात के विरुद्ध, एक विराट संदेश है। देश के कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में भोजपुर इस बात की भी मिसाल रहा कि कैसे जातिगत-वर्णगत शोषण का अंत भी वर्ग-संघर्ष के रास्ते ही संभव है, जब तक कृषि-क्रांति की धुरी पर आधारित भारत की जनवादी क्रांति का रास्ता न अपनाया जाएगा, भूमि-संबंध आमूलचूल नही बदले जाएंगे, तब तक छुआछूत और भयानक जातिगत और लैंगिक असमानता के खात्मे, वर्ण-व्यवस्था के खात्मे की लडाई भी नहीं हो पाएगी। आज से चार दशक पहले ही कामरेड रामनरेश राम और उनके साथियों के नेतृत्व में भोजपुर की जनता ने इस रास्ते को अंगीकार किया था। सामंती, जातिगत शोषण से निचली समझी जानेवाली जातियों की मुक्ति उन जातियों से आनेवाले मुट्ठी भर नवधनिक और दबंग प्रतिनिधियों द्वारा ज़मींदार-पूंजीपति राजसत्ता का हिस्सा बन जाने से नहीं हो सकेगी। कामरेड रामनरेश राम के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने यह बारंबार साबित किया कि ज़मीन, मज़दूरी और सामाजिक मान-सम्मान एक ही समेकित लडाई है, अलग-अलग नहीं। का. रामनरेश राम का राजनीतिक जीवन इस बात की भी मिसाल है कि क्रांतिकारी विपक्ष का निर्माण संसदीय और कानूनी निकायों में भी जन-आंदोलनों और वर्ग-संघर्ष के बूते ही होता है, अलग से नहीं, कि क्रांतिकारी विपक्ष मात्रा संसदीय दायरे की चीज नही है। 

जब सोन किनारे की अंतिम संकल्प सभा में महासचिव का. दीपंकर भट्टाचार्य ने मंच से कहा कि, ‘सत्तर के दशक में जिन नेताओं को हमने खोया, उन्हें इस तरह से विदाई नहीं दे पाए थे', तो वहां हजारों की तादाद में जुटे लोगों में बहुतों की ही आंखें बरबस ही भर आई थीं। धीरे-धीरे सूर्य भी आकाश से विदा ले रहा था, सोन की रेती पर हजारों मेहनतकश पांव अपने निशान बना रहे थे, कंधें पर सैकड़ों गमछे कल, आज और कल के आंसुओं और पसीने का सोख्ता बने लहरा रहे थे, सैकड़ों लाल झंडे बल्लियों और लाठियों पर गर्व से सर उठाए आगे की चुनौतियों से निबटने की तैयारी का उद्घोष कर रहे थे। न जाने कितनी मां-बहनें भी परंपरा को धता बताते हुए रेती में उतर पडी थीं। आखिर ये और किसी की नहीं उनके नायक, भारतीय क्रांति के नायक का. रामनरेश राम की अंतिम विदा की घड़ी थी।

2 comments:

  1. कामरेड रामनरेश राम जिंदाबाद।

    ReplyDelete
  2. कामरेड रामनरेश राम जिंदाबाद।

    ReplyDelete