Sunday, July 15, 2018

कथाकार व कामरेड मधुकर सिंह की याद में : संतोष सहर


मधुकर जी अब हमारे बीच नहीं है। चार साल पहले 15 जुलाई को ही उन्होंने हमसे विदा ली थी। अगले दिन आरा के पार्टी (भाकपा-माले) कार्यालय में, जहाँ अंतिम दर्शन के लिए उन्हें रखा गया था, एक श्रद्धांजलि सभा हुई थी। मैं उसमें शामिल था। फिर, पटना (20 जुलाई) और आरा (26 जुलाई) में आयोजित सभाओं में भी। मुझे उनसे जुडे दर्जनों लोगों के संस्मरणों व मन्तव्यों को जानने-सुनने का मौका मिला था। साथ ही इस सिलसिले से अपनी बातें कहने का भी।

अब जबकि मधुकर जी हमारे बीच नहीं हैं, हमें उनक़ी सच्ची विरासत को अक्षुण्ण बनाये रखने और उसे और भी समृद्ध करने का भी मजबूत संकल्प लेना होगा. मधुकर जी अपने लेखन ही नहीं बल्कि जीवन-व्यवहार में भी 'दुश्मन' खेमे में जा बैठे लोगों क़ी बार-बार और साफ-साफ पहचान की थी. यह नजर हमें भी हासिल करनी होगी. इस बेहद नाजुक दौर में जब देश भगवा तानाशाही के पैरों तले कराह रहा है। धर्म, जाति और धन की श्रेष्ठता के दम्भ से भरी कारपोरेट-मनुवादी-सामंती ताकतों का गठजोड़ गरीब-दलित-मुस्लिम-कमजोर आम जन का जीवन बेलगाम रौंद रहा है और सामाजिक न्याय के कुछ फर्जी मसीहा भी उसकी ही कुर्सी के पांयचे बन चुके हैं, इस नजर को हासिल करना और भी ज्यादा जरुरी है।

80' के दशक में भोजपुर हिंदी कहानी का सबसे 'उर्वर प्रदेश' लगता है। 80 के दशक में भोजपुर समेत मध्य बिहार के जिलों में धधक उठे गरीबों-दलितों-पिछड़ों के आंदोलन ने हिंदी कहानी को एक नई जमीन ढ़ी। इस 'आग' और 'धुंए' को जिन तीन कथाकारों ने सबसे अच्छे तरीके से ढूंढा, उनमें बिजेंद्र अनिल, मधुकर सिंह और सुरेश कांटक का नाम सबसे पहले आएगा। यह भी एक संयोग ही है कि ये तीनों ही पेशे से स्कूल शिक्षक थे। वे गांवों में रहते हुए ही कहानी लिखते रहे। बिजेंद्र अनिल व सुरेश कांटक तो उन गांवों से आते थे, जहां वर्ग-संघर्ष की लपटें सबसे तेज थीं। मधुकर जी उस आरा शहर व उसके पास के अपने गांव धरहरा में जहां यह लपट तेजी से पहुंच जाती थी। भोजपुर आंदोलन के रचनाकार कॉ. जगदीश मास्टर उनके सहकर्मी ही नहीं, आजीवन साथी भी रहे। गांव-समाज की हर धड़कन इन्हें साफ-साफ सुनाई पड़ती थी। इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती। बल्कि हम जिसे हिंदी कहानी का 'भोजपुर स्कूल' कहते हैं, उसे इससे जोड़कर ही समझा जा सकता है।

मुझ जैसे बहुतों के पास मधुकर जी की ढेर सारी स्मृतियां हैं। कई-कई तरह के संस्मरण हैं। अगर इन्हें जमा किया जाए तो उनके व्यक्तित्व के कई अनजाने पहलू जगमगा उठें। नाटकों व सिनेमा में भी उनकी गहरी दिलचस्पी रही। युवा नीति से उनका गहरा व आजीवन जुड़ाव रहा। जसम द्वारा किये गए उनके सम्मान समारोह (आरा) उनकी कहानियों के मंचन के दौरान मैं साथ ही बैठा। वे बहुत ही उत्सुक, सजग व सचेत दर्शक थे जो मंच पर चल रही हर गतिविधि पर सटीक टिप्पणी करते। एक कहानी का मंचन उन्हें अच्छा नहीं लगा। वे धीरे-से बोले - कहानी इनको (निर्देशक को) समझ में नहीं आयी। रोहित के निर्देशन में युवा नीति के नए कलाकारों ने 'दुश्मन' का मंचन किया। उसे देखते हुए उन्होंने खूब मजा लिया।
युवा नीति का पुनरोदय - उनके इस स्मृति दिवस पर क्या यह हमारा कार्यभार नहीं बनना चाहिए, साथियो।

यह उनकी एक पुरानी तस्वीर है। बहुत पुरानी भी नहीं। वे 2004 में गांधी मैदान में आयोजित हल्लाबोल रैली के मंच पर बैठे हुए हैं। कितना शांत, सुकून-भरी भंगिमा। आगामी 27 सितम्बर को गांधी मैदान में हम फिर एक रैली करने जा रहे हैं - भाजपा भगाओ-लोकतंत्र बचाओ रैली। लेकिन, वे इस बार हमारे साथ नहीं होंगे। उनकी स्मृति-भर होगी। हम उनकी स्मृति को अपनी ताक़त बना लें और इस रैली को 'दुश्मन' पर निर्णायक प्रहार बना दें।

No comments:

Post a Comment