वो सूरतें इलाही किस मुल्क बसतियाँ हैं
अब देखने को जिन केआंखें तरसतियाँ हैं
(ऑटो चालक ने मुझे जिस जगह उतारा वह पुनपुन नदी पर बना एक पुल था। का किनारा था। पूछने पर पता चला यह पुनपुन नदी है। पुल के पहले व बाद में दो-चार गुमटियां और सामुदायिक भवन जिस पर कॉ. मंजू देवी के नाम का शिलापट्ट लगा हुआ है। पुल के पार बाएं उतरिये तो धरनई गांव। नीचे से होकर बहती पुनपुन नदी, जिसमें दर्जन भर बच्चे छपाछप नहा रहे होते हैं।
पूछते-पाछते घर तक पहुंचा तो दो किशोर वय बच्चियां मिलीं। फिर कॉ. मंजू भी दिखीं कमरे की दीवारों पर टंगी अपनी तस्वीरों से झांकती हुईं।
आज जब देश के फासीवाद निजाम की ओर से सामाजिक-आर्थिक वंचना व गैरबराबरी के खिलाफ हम मेहनतकशों के संघर्ष के महान नायकों - लेनिन, पेरियार, अम्बेदकर, भगत सिंह आदि के स्मारकों, मूर्तियों व स्मृति चिन्हों तक के प्रति देशव्यापी उन्मत, घृणित व हिंसक अभियान छेड़ दिया गया है, कॉ. मंजू को याद करना बेहद जरूरी लगता है।
रणवीर सेना के गुंडों ने 10 नवम्बर 2003 को जहानाबाद जिले के पुराण गांव में कायरता की एक नई मिसाल कायम करते हुए उन्हें मार डाला था। अपने दो साथियों के साथ लौट रही मंजू देवी पर कई गोलियां दागी गयीं जबकि वह हत्यारों के सामने अकेली और निहत्थी खड़ी थीं। हत्यारे तभी हटे जब उन्हें उनके जीवित न बचने का पक्का यकीन हो गया। तब उनकी उम्र महज तैतीस बरस थी।- संतोष सहर)
जन्म और बचपन
जहानाबाद जिले (अब अरवल) का एक गांव है - खरसा। यह गांव उस लक्ष्मणपुर-बाथे गांव से ज्यादा दूर नहीं जहां 31 दिसंबर 1997 को 59 दलित-गरीबों का नृशंस जनसंहार हुआ था।
वर्ष 1970 में 14 अप्रैल को जो बाबा साहेब भीमराव अम्बेदकर का जन्मदिन भी है, मंजू पैदा हुईं। वे अपनी माता-पिता शांति देवी और शिवसेवक साव की पहली संतान थीं। अपने चार छोटी बहनों और दो छोटे भाईयों समेत चचेरे भाई-बहनों समेत भरा-पूरा लेकिन गरीब परिवार। पिता और चाचा विरासत में मिले चावल की लदनी-बेचनी का काम करते थे। दस कट्ठा जो पुश्तैनी जमीन थी, वह भी कब की बिक चुकी थी। सबसे बड़ी सन्तान थीं इसलिए बचपन लाड़-प्यार में ही बीता।
पहला सबक
10 साल की उम्र हुईं तो मंजू ने स्कूल जाने की ज़िद ठान लीं। गरीब मां-बाप ने खरसा टोले के प्राथमिक विद्यालय में नाम लिखा दिया।
स्कूल आने-जाने के दौरान ही मंजू ने समाज की गैरबराबरी, जाति व लिंग आधारित पूर्वाग्रहों, भेदभाव व हिंसा का प्रत्यक्ष अनुभव हासिल किया। भूमिहार जाति के दबंग मालिकों के बिगड़ैल बच्चे हर बहाने से दलित-गरीबों के बच्चों के साथ मारपीट व बच्चियों के साथ छेड़खानी किया करते। उनके घरवाले भी हर शिकायत की अनसुनी करते। मंजू ने अपने दलित-गरीबों के बच्चों के साथ मिलकर उनका विरोध करना शुरू किया। इस तरह उनके किशोर मन में अन्याय के प्रतिकार व सामंती हिंसा के प्रतिकार के पहले बीज अंकुरित हुए।
यही समय था जब सरवरपुर, कईल, कामता आदि आसपास के गांवों में नई हलचल शुरू हुई। आइपीएफ तथा भाकपा-माले का संगठन बनने लगा। लोदीपुर में भी आइपीएफ के लोग आने-जाने लगे। दलित टोले खरसा में तो मजबूत संगठन बन गया। 1985 के विधानसभा चुनाव आया। दबंगों ने गोली चलाई और गांव का बूथ कब्जा कर लिया। इस घटना ने गरीबों के भीतर अपना संगठन बनाने के संकल्प को और बढ़ा दिया।
पिता शिवसेवक साव बताते हैं कि सरवरपुर के इंदल मेहता (लोकप्रिय नाम गांधी जी) और कुंती देवी तथा बेलावं की मीना देवी आइपीएफ में थीं। खरसा टोले के सिद्धेश्वर, राजबलि और रामईश्वर पासवान भी थे। मंजू भी गांव स्तर पर आइपीएफ से जुड़ गई। बैठकों की खबर करना, बाहर से आये लोगों के खाने-सोने की व्यवस्था करना और सभा-जुलूसों में आना-जाना। यह देखकर मेरे मन में भय पैदा होने लगा। मालिकों का दबाव व धमकी मिलती और जाति-बिरादरी की नसीहतें। मैंने समझाने-बुझाने से लेकर डराने-धमकाने तक के तरीके आजमाने शुरू कर दिये। लेकिन, अंततः उसने मुझे भी कायल कर लिया, अपना समर्थक बना लिया।
कॉ. मंजू का अपने अपने भाई-बहनों से असीम लगाव था। वे उनका बहुत खयाल रखती थीं। बदले में उनका भी आदर-प्यार उन्हें मिलता। वे पास-पड़ोस के गरीबों की हर तरह से मदद करने को हमेशा तत्पर रहतीं। वे गांव-घर की चहेती बन गयीं।
उसी समय एक घटना घटी। एक रात शिवसेवक साव के घर में चोरी हो गयी। चोर घर का सारा सामान, कपड़ा-लत्ता और अनाज-पानी उठा ले गए। चोरी किसने करवायी यह समझना मुश्किल नहीं था। आइपीएफ ने इस गाढ़े वक्त में परिवार का पूरा साथ दिया। जरूरत का हर समान मुहैय्या कराया। अब पूरा परिवार ही आइपीएफ का मुरीद बन गया। मंजू भी जोश-खरोश से संगठन का काम करने लगीं।
चर्चित महिला नेता कॉ. कुंती देवी बताती हैं कि मंजू से मेरी पहली भेंट 1985 में ही हुई थी। लोदीपुर-खरसा गांव में महिला संगठन की बैठक हो रही थी। वह देखने-सुनने के लिए बैठक में आयी थीं। उनको बैठक में शामिल कर लिया गया। बारह-तेरह साल की लगती थीं। मैंने जब बात चलायी तो संगठन का कामकाज करने को तैयार थीं।
20 सितंबर 1988 को सामंतों ने आइपीएफ के स्थानीय नेता कॉ. चितरंजन मिश्र की हत्या कर शव गायब कर दी। कॉ. मंजू ने उनके शव को ढूंढने में सक्रिय भूमिका निभायी जो अंततः एक तालाब में मिला। तब वे सातवीं कक्षा में थीं। इस हत्या के खिलाफ चले आंदोलन के दौरान ही उनकी सक्रियता अगले स्तर तक पहुंची।
युवा जोश
अरवल रेड क्रॉस सोसायटी के अध्यक्ष कॉ. राजनारायण चौधरी बताते हैं : ' मैंने लाल छींट का फ्रॉक पहने एक बच्ची को झंडा थामे जुलूस के आगे-आगे चलते और नारा लगाते देखा। वह देखने में बमुश्किल 15 साल की लगती थी। वह जल्द ही जनवादी महिला मंच की नेता और भाकपा-माले के पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता के बतौर काम करने लगीं।
1989 में करपी प्रखंड के केयाल गांव में एक माले कार्यकर्त्ता रामप्रवेश दास (राजेश) को सामंती गुंडों ने हत्या कर देने की नीयत से पकड़ लिया। कॉ. मंजू ने तुरत ही लोगों को संगठित किया, गुंडों का प्रतिरोध किया था और उन्हें छुड़ा लिया था। 1990 के विधानसभा चुनाव में जब कॉ. रामाधार सिंह अरवल के प्रत्याशी थे, वह रोजाना हम सबके साथ प्रचार जत्थे में शामिल होती। कॉ. शाह चांद के घर में उसको शेल्टर दिया गया जहां पूरा परिवार उसे अपनी बच्ची की तरह प्यार-दुलार देता। उसके खाने-पहनने का सारा इंतजाम करता। चुनाव बाद वह करपी में ही काम करने लगीं। इसी दौरान उनकी शादी भी हुई और जीवन में एक नया अध्याय जुड़ गया।
1990 में करपी के प्रमुख नेताओं में थे - कॉ. सुभाष सिंह, रामप्रवेश विश्वकर्मा और अशोक वर्मा। कॉ. सुभाष सिंह पार्टी के चंद शुरुआती नेताओं में थे। पार्टी कामकाज के दौरान ही वे और कॉ. मंजू एक दूसरे के नजदीक आये, घनिष्ठ हुए और फिर शादी करने का फैसला लिया।
कॉ. सुभाष सिंह बताते हैं " हमारी शादी अंतर्जातीय थी। मैं राजपूत जाति से था। इस शादी को लेकर मेरे पिता या परिवार में कोई विरोध नहीं हुआ। लेकिन, कॉ. मंजू के पिता व परिवार का विरोध रहा। उनके घर से बाहर आने-जाने पर रोक लगा दी गयी थी। शादी से एक दिन पहले जब उनको अपने मामा के घर (गैनी गांव) पहुंचाया जा रहा था, उन्होंने बीच रास्ते घर में कपड़ा छूट जाने का बहाना बनाया और तब पार्टी के जिला सचिव रहे कॉ. अजित (सुरेश मेहता) के पास जा पहुंचीं। हमारी शादी 2 अप्रैल 1990 को अलावलपुर गांव में हुई थी। सारा इंतजाम जल श्रमिक संघ के नेता रामचरित्तर जी ने किया था। कॉ. शिवसागर शर्मा ने हमें शादी की शपथ दिलवाई थी।"
जीवन की राहों पर
शादी के बाद भी कॉ. मंजू देवी की राजनीतिक सक्रियता कम नहीं हुई। 1992, 1995 व 1997 में क्रमशः अनिल कुमार, धीरेंद्र और जयप्रकाश का जन्म हुआ। इन तीनों का पालन-पोषण करते हुए भी वे माले और महिला संगठन के कार्यक्रमों में सक्रियतापूर्वक हिस्सा लेती रहीं।
"कॉ. मंजू से हुई पहली मुलाकात मुझे अब भी याद है। वे 1990 के अंत में किसान महिला सेल द्वारा आयोजित महिला कन्वेंशन में भाग लेने पटना आयी थीं। एक दुबली-पतली लड़की का शुद्ध खड़ी बोली में दिया गया वह ओजपूर्ण वक्तव्य आज भी भुलाए नहीं भूलता" - ऐपवा की राज्य अध्यक्ष कॉ. सरोज चौबे बताती हैं।
फिर भी घर-परिवार की जिम्मेवारियों, खास तौर पर तीन-तीन बच्चों का लालन-पालन करना एक बड़ी जिम्मेवारी है। कॉ. मंजू देवी ने उचित तालमेल कायम करते हुए अपने बच्चों समेत एक संयुक्त परिवार में सबका, यहां तक कि पूरे गांव का प्यार व सम्मान हासिल किया।
1998-2005 के बीच भाकपा-माले के जहानाबाद जिला सचिव के रूप में काम कर चुके कॉ. कुणाल कहते हैं - 1998 में जब मैं यहां पहुंचा था जिले में लंबे समय बाद एक नया माहौल था। जिले में जनांदोलन तेज करने की पूरी संभावना मौजूद थी। संगठन को भी नई गति व ऊर्जा मिल रही थी। एक नया दौर जिसमें रणवीर सेना एक प्रमुख चुनौती बनकर सामने आयी थी। पार्टी यूनिटी व एमसीसी अपनी अराजक नीतियों की वजह से उसके खिलाफ असफल साबित हो रहे थे। रणवीर सेना की मदद में सरकार भी खड़ी थी। अराजकतावादी कार्रवाइयों व संगठनों पर रोक लगाने की आड़ लेकर जिले में भारी पुलिस फौज तैनात थी। गरीब एक ओर रणवीर सेना की हिंसा तो दूसरी ओर पुलिस का भयानक दमन झेल रहे थे। इन दोनों के खिलाफ व्यापक दायरे में प्रचार अभियान छेड़ते हुए जोरदार व जुझारू प्रतिरोध खड़ा करना वक्त की जरूरी मांग थी। कॉ. मंजू देवी ने इस जरूरत को बेहद संजीदगी से आत्मसात किया। उन्होंने अपने राजनीतिक सक्रियता की दूसरी उड़ान भरी और अगले पांच वर्षों की अल्प अवधि में ही खुद को उस ऊंचाई पर स्थापित कर दिया जो एक नया प्रतिमान बन गया।
करपी के खड़ासीन में रणवीर सेना द्वारा तीन महिलाओं समेत 8 गरीबों का जनसंहार (2 सितंबर 1997) हो या अरवल के इमामगंज में पुलिस द्वारा दो स्कूली छात्रों की हत्या (18 जून 2000) या बलौरा गांव में एक दलित परिवार के दो लोगों की हत्या (2001) - कॉ. मंजू हर हत्याकांड के खिलाफ आंदोलन की अगली कतार में खड़ी रहीं।
कॉ. मंजू ने करपी बाजार में व्यवसायी वीरेंद्र गुप्ता की हत्या, करपी गाँव के किसान कृष्णा प्रसाद पर जानलेवा हमला, आजादनगर (किंजर) के झिकटिया टोले में दो बच्चों समेत दलित महिला की हत्या, करपी के मुरारी गांव में एक किसान की हत्या तथा पुराण गांव में दो युवकों की हत्या की घटनाओं के खिलाफ भी आंदोलन खड़े किए।
महिलाओं की सशक्त आवाज
बंशी प्रखंड के अनुआ गांव में एक रात रणवीर गुंडे एक बनिया परिवार के घर में जबरन घुस गए। पहले तो घर की महिलाओं की आबरू लूटने का प्रयास किये और जब विफल रहे तो बुरीतरह मार-पीट किये। खबर पाते ही कॉ. मंजू वहां पहुंची, प्रतिवाद सभा आयोजित किया और उन पर मुकदमा दर्ज करवाकर ही दम लीं। करपी बाजार में एक महिला किरायेदार और बसनबिगहा में एक दलित लड़की (2002) के साथ बलात्कार करनेवाले सामंती अपराधियों के खिलाफ भी मंजू डटकर खड़ी हुईं।
याद होगा कि कुर्था प्रखंड के सेनारी गांव में जहां एमसीसी ने रणवीर सेना समर्थक बता 34 सवर्ण लोगों की हत्या कर डाली थी (18 मार्च 1999 को)। अगले साल पुलिस ने भी भूमिहार जाति के लोगों के घरों में घुसकर महिलाओं की बर्बरतापूर्वक पीटा। कॉ. मंजू के नेतृत्व में इस घटना के खिलाफ भी प्रतिवाद सभा का आयोजित की गयी।
जन प्रतिनिधि
सोनभद्र-वंशी-सूर्यपुर जिला परिषद क्षेत्र में आठ पंचायतें हैं - माली बिगहा, खड़ासीन, शेरपुर, अनुआ, सोनभद्र, सेनारी, खटांगी और चमण्डी। पहले यहां एमसीसी का प्रभाव था। वे माले कार्यकर्त्ताओं की भी हत्याएं कर दिया करते थे। लेकिन, जब रणवीर सेना का खूनी दौर शुरू हुआ, वे गरीबों की रक्षा करने के बजाय इलाका खाली कर दिए।
कॉ. मंजू देवी ने गरीबों पर रणवीर सेना-पुलिस द्वारा हत्या-बलात्कार की हर छोटी-बड़ी घटना के खिलाफ पहल की, प्रतिरोध खड़ा किया और गरीबों को इसमें संगठित किया। वह दुःख-सुख की हर घड़ी में उनके साथ खड़ी रहीं। वह जनता का सर्वप्रिय नेता बन गयीं। 2001 में यहां से ही उन्होंने जिला परिषद का चुनाव जीता। रणवीर सेना की महिला प्रत्याशी रीना देवी को भारी मतों से पराजित किया। अपनी जीत को उन्होंने जनसंघर्षों की जीत बताया था।
अरवल के जिला सचिव कॉ. महानन्द बताते हैं : वे बहुत हीं साहसी थीं। तेजी से और सही दिशा में पहलकदमी लेती थीं। एक घटना है कि गांव के दबंग ने गरीब पर खलिहान से धान की चोरी का झूठा आरोप लगाया और उसे पकड़कर मारने-पीटने लगा। वे तुरत वहां पहुंचीं, घूम-घूम कर पूरा गांव को अपने साथ कर लिया और उसे मुक्त करवाया। करपी प्रखंड के मुरारी गांव में रणवीर सेना ने एक किसान की हत्या कर दी। उन्होंने मजिस्ट्रेट से लिखित आश्वासन लिए बगैर शव को उठाने नहीं दिया। प्रशासन ने उन पर इलाके में अशांति फैलाने का मुकदमा दायर किया। वे शासन की धौंस-धमकियों की जरा भी परवाह नहीं करती थीं।
कॉ. कुंती बताती हैं "मंजू में जननेता के जबरदस्त गुण थे। वह बहुत मिलनसार थी, सचेत व समझदार भी। सब कुछ तुरत सीख लेती। गरीबी में पली-बढ़ी थीं सो सहज हीं गरीबों में घुल-मिल जाती। साहसी थी, डर-भय बिल्कुल नहीं था। खूबसूरत, सलीकेदार और पढ़ा-लिखा होने की वजह से वह ऊंची जातियों की युवतियों को भी आकर्षित कर लेती थी। महिलाओं के बीच तो बहुत ही लोकप्रिय थी।''
"कॉ. मंजू आंदोलन और पार्टी के प्रति निष्ठा व वफादारी की मिसाल थीं। जिम्मेवारियों के प्रति हमेशा उत्साही रहतीं। बेहद खुशमिजाज व फुर्तीली जो कठिन से कठिन काम को भी सहजता से सम्पन्न कर देतीं। मध्यवर्गीय शहरी आधार में भी बेहिचक घुस जातीं और वहां अपने समर्थक बना लेतीं। साहस और गरिमा, ये गुण उन्होंने गरीब जनता से परिश्रमपूर्वक हासिल किया था। उस जनता से जो उन्हें अटूट प्यार करती थी।" - कॉ. कुणाल बताते हैं।
वो शाम हत्यारी
धरनई गांव के माले कार्यकर्त्ता विजय बताते हैं : "मैं खुशकिस्मत रहा कि वे मेरे बड़े भाई की पत्नी थीं। उन्होंने मुझे अपने बच्चों की तरह ही प्यार दिया। उस दिन भी मैंने ही अपनी मोटरसाइकिल पर उन्हें बैठक में पहुंचाया। उन्होंने अपने हाथों से मुझे मछली खिलायी। दोपहर बाद मैं वहां से लौटा था।
शाम को यह सुनकर कि रणवीर हत्यारों ने करपी लौटते वक्त पुराण गांव में उनकी हत्या कर दी, गांव-घर में कोहराम मच गया। महिलाएं-बच्चे दहाड़ मारकर रोने लगे। जान ले लेने की धमकियां उनको हर रोज मिलती थीं। किसको पता था कि वह आज ही सच साबित हो जाएंगी।"
कॉ. मंजू के साथ दो और लोग भी थे, अवधेश और अशोक वर्मा। अवधेश कहते हैं कि दिन का समय था इसलिये लगा कि ऐसा कुछ नहीं होगा। आशंका तो हमेशा ही रहती थी। पुराण गांव हमलोग पार करने ही वाले थे कि अचानक हथियारबंद हत्यारे सामने दिख गये। वहां प्रतिरोध करना असंभव था।
11 नवंबर को उसी जगह की गई संकल्प सभा से जिसमें पांच हजार से भी अधिक लोग शामिल थे, जहानाबाद के नदी घाट तक कॉ. मंजू की अंतिम यात्रा शुरू हुई।
कॉ. मंजू की इस कायरतापूर्ण हत्या का देश के हर कोने में विरोध हुआ। जहानाबाद, अरवल, भोजपुर, सिवान, पटना, दरभंगा सब जगह गरीबों, महिलाओं व न्यायपसन्द लोगों ने शोक मनाया। राष्ट्रीय महिला आयोग की टीम ने हत्यास्थल का दौरा किया व हत्यारों को सजा दिलाने की मांग की।
चर्चित वामपंथी चिंतक जेम्स पेत्रास (अमेरिका ) समेत ब्रिटेन के दर्जनों बुद्धिजीवियों तथा लेबर पार्टी ऑफ पाकिस्तान, यूरोपियन पार्लियामेंट (फ्रांस) तथा सोशलिस्ट पार्टी ऑफ लेबर (फिलीपींस) ने हत्यारों की गिरफ्तारी की मांग करते हुए बयान व पत्र भेंजे।
जहानाबाद के साथी ब्रह्मदेव ने उनकी शहादत पर यह गीत लिखा था :
"बिलखत मजदूर किसानवा हो,
कामरेड मंजू जी हो गइली सपनवा!
दस तारीख रहे, नवंबर महीनवा,
चार बजे सांझ रहे, सोमवार दिनवा,
गोलिया मरलस रणवीर सेनवा हो!
कामरेड मंजू जी हो गइली सपनवा!
गांवें-गांवें, टोले-टोले, खबर पाई,
रोवत-पीटत आवे मजदूर भाई,
घर में रोवे तीन-तीन ललनवा हो!
कामरेड मंजू जी हो गइली सपनवा!
उनकी प्रिय पार्टी भाकपा-माले ने उनको श्रद्धाजंलि देते हुए कहा - "कॉ. मंजू उन बहादुर नई महिलाओं की ठेठ प्रतिनिधि थीं, जो नवजनवाद के लिए, नये बिहार के लिए पिछले तीन दशकों से जारी संघर्ष के दौरान उभरी हैं।"
शर्म उनको मगर नहीं आती
हफ्ते दिन बाद रणवीर सेना ने प्रेस बयान जारी कर इस घृणित हत्या की जिम्मेवारी लेते हुए कॉ. मंजू की हत्या को सही ठहराने की बेशर्मी दिखाई भी दिखा दी। लेकिन जिले के गरीबों के दिल में जमा शोक नया संकल्प बनकर खड़ा था।
हजारों लोगों की सभा के साथ 25 जनवरी 2004 को करपी में कॉ. मंजू के स्मारक व मूर्ति का अनावरण हुआ। शहीद मंजू जीवित मंजू जैसी ही ताकतवर साबित हुईं। हत्यारे उनकी मूर्ति को भी क्षति पहुंचाने की कोशिशों से बाज नहीं आये। लेकिन, आज भी यह मूर्ति व स्मारक गरीब लोगों के गौरव का गान करते हुए वहां खड़ा है।