शेरशाह सूरी |
जुल्म और अन्याय की सत्ताओं के खिलाफ भोजपुर के संघर्ष का अपना एक विशिष्ट इतिहास रहा है. असुर और देव संस्कृतियों के संघर्षों को फिलहाल छोड़ भी दें, तो बिहार में जो आदिवासियों ने १८५५ में जो जबरदस्त संघर्ष छेड़ा, उसके तार भोजपुर से जुड़े होने के संकेत मिलते हैं.१८५७ के महान विद्रोह में भी वह रिश्ता नज़र आता है. बड़ी ताकतों से टकरा जाने और शासंनव्यवस्था के उनसे बेहतर उदाहरण पेश करने वाली शेरशाह सूरी और कुंवर सिंह जैसी शख्सियतें यहाँ के इतिहास से जुडी रही हैं. १८५७ का विद्रोह की लहर सबसे देर तक यहाँ मौजूद रही. अंग्रेजों ने १८५७ के संग्राम का नेतृत्व करने वाले सभी लोगों को समूल नष्ट कर दिया. लेकिन जनता की चेतना से आजादी और बराबरी के स्वप्न को वे नष्ट नहीं कर पाए.
कुंवर सिंह |
स्वाधीनता सेनानी रमाकांत द्विवेदी रमता ने कुंवर सिंह पर लिखे अपने मशहूर गीत में यह लिखा है- देश जागेला त दुनिया में हाला हो जाला/ कंपनी का पार्लमेंट के दीवाला हो जाला. १८५७ के विद्रोह के १०० साल होने पर उन्होंने यह लिखा था. नमक सत्याग्रह में पहली बार जेल जाने वाले रमता जी का खुद का जीवन संघर्ष के सारे रूपों से जुड़ा रहा. वे १९४२ के अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन में शामिल हुए. फिर सोशलिस्ट बने. वहां से कम्युनिस्ट आन्दोलन से उनका जुडाव हुआ. इसी बीच नक्सलबाड़ी की चिंगारी भोजपुर पहुँची और सामंतवादविरोधी संघर्ष में जगदीश मास्टर, रामेश्वर अहीर, बुटन मुसहर, डॉ. निर्मल, रामायण राम, नारायण कवि, शीला, अग्नि, लहरी और भाकपा-माले के तत्कालीन महासचिव जौहर समेत कई योद्धाओं को उन्होंने शहीद होते देखा, नक्सलबाड़ी विद्रोह के पक्ष में उन्होंने गीत लिखे और बाकायदा भाकपा- माले के सदस्य बन गए.
रमता जी |
भोजपुर आन्दोलन के शिल्पकारों में से एक रामनरेश राम के नेतृत्व में चल रहे भोजपुर के गरीब मेहनतकश किसानों और मजदूरों के आन्दोलन में तो वे शामिल हुए ही, उन दोनों की कामरेडशिप भी अपने आप में एक मिसाल बन गई. उसी दौरान उन्होंने कई मशहूर जनगीत रचे. जिनको आज भी आदोलनों में सुना जा सकता है. अपने गीतों में उन्होंने कहा कि देश जाल में फंसा हुआ है, उसको छुड़ाना होगा. वे इस तरह का गांव बनाने की बात करते हैं, जहाँ सपने में भी जालिम जमींदार ना रहे. इस ब्लॉग में सामाजिक राजनीतिक बदलाव के लिए भोजपुर की जनता की लंबी लड़ाई के बहुत सारे प्रसंगों और संदर्भों की चर्चा होती रहेगी. इतना संकेत दे रहा हूँ कि यह लड़ाई एकांगी नहीं है.
मास्टर जगदीश |
न तो १८५७ के संग्रामियों की हत्या से आजादी की लड़ाई थमी, न लसाडी में ब्रिटिश फौज द्वारा १९४२ के आंदोलनकारियों की हत्या से. इसी तरह जगदीश मास्टर, रामेश्वर अहीर. जौहर, बुटन से लेकर जिउत, सहतू, केशो, मणि सिंह सरीखे जननेताओं और योद्धाओं की हत्या के बाद भी वह लड़ाई नहीं थमी है.
का. बुधराम पासवान |
बुधराम पासवान की शहादत के बाद भी भोजपुर में बदलाव की लड़ाई जारी रहेगी. भोजपुर आन्दोलन की शुरुआत का तात्कालिक कारण सामंतों द्वारा जबरन वोट हडपने का विरोध करने के कारण मास्टर जगदीश के ऊपर किया गया जानलेवा हमला था. एक सीमित अवधि को छोड़ दें तो चुनाव बहिष्कार को क्रांतिकारिता का पर्याय इस आन्दोलन ने नहीं बनाया. भोजपुर में तो गरीबों को वोट देने के संवैधानिक अधिकार के लिए भी शहादतें देनी पड़ी. और आन्दोलन की शुरुआत करने वाले रामनरेश राम ने तो इसका भी उदाहरण पेश किया कि क्रांतिकारी ताकतें चुनाव का कितना सार्थक उपयोग कर सकती हैं. तो अभी खास तौर से चुनावों में जनता की परिवर्तनकारी राजनीति की गतिविधियों की ही चर्चा होगी.
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